![समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पान समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पान](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2xW6b_3DtUEfKCwPssZ9oJ68UACtFBugxy1TK2YWiy_NbzCaIIz_ozjWoXPh0DJTDp2n8kZ0NpaIGIo1VFDDDlkf59klbq_c3dLfRGGib7CwwsCBwtYcMS7YlbXd-zQentalpKAJd5VE/s320/671fc86500ae5dd534f859e4483354fe_1440076362.jpg)
सुवर्णभूमि अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, बैंगकॉक में सागर मन्थन की एक प्रतिमा के दो तरफ़ से चित्र
"भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
है भगवान शिव के नीले कंठ का रहस्य1. भोलेनाथ के नामभोलेनाथ, महादेव, महेश नाजाने कितने नामों से जाने जाने वाले भगवान शिव अपने भक्तों के बीच भोलेनाथ के नाम से ज्यादा लोक प्रिय हैं। भगवान शिव अपने भक्तों में ना तो भेदभाव करते हैं और अन्य देवी-देवताओं की अपेक्षा उनसे बहुत ही जल्द प्रसन्न भी हो जाते हैं। यही वजह है कि उनके भक्त उन्हें भोलेनाथ कहते हैं।
2. विनाश की बागडोरसृष्टि के विनाश की डोर संभाले भगवान शिव का एक और ना भी है, नीलकंठ। इस नाम के पीछे का कारण है उनका नीला कंठ, जो इस बात का प्रमाण है कि शिव सृष्टि को बुराई और पाप से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
3. शिव का स्वरूपशिव के स्वरूप को कुछ इस तरह बेहतर समझा जा सकता है, बालों में गंगा को संभाले, बालों में चंद्र का मुकुट और गले में सांप को लटकाए, हाथ में त्रिशूल और अपने प्रिय वाहन नंदी की सवारी करने वाले वो देव जो हमेशा सेही मानव जाति के रक्षक और बुरी शक्तियों के लिए विनाशक रहे हैं।
4. भिन्न-भिन्न स्वरूपशिव के भिन्न-भिन्न भक्त उन्हें भिन्न-भिन्न स्वरूपों में देखते हैं। इन्हीं स्वरूपों के आधार पर उन्हें अलग-अलग नाम भी दिए गए हैं। आज हम आपको उनके नीलकंठ होने का रहस्य बताएंगे।
5. इन्द्र को श्रापपुराणों के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि ने अपने अपमान से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र को यह श्राप दिया कि वे लक्ष्मी (धन) विहीन हो जाएंगे। ऐसे में इन्द्र, भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने के लिए गए। भगवान विष्णु ने उन्हें श्राप से मुक्ति पाने का एक मार्ग बताया।
6. समुद्र मंथनभगवान विष्णु ने इन्द्र देव को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा, जिसके लिए असुरों को अमृत का लालच दिया गया।
7. मंथन की शुरुआतमंदार पर्वत, वासुकी नाग और स्वयं भगवान विष्णु के कच्छप अवतार की सहायता से समुद्र मंथन की शुरुआत हुई, एक तरफ असुर और दूसरी तरह देवता।
8. 14 लाभदायक वस्तुएंइस मंथन के दौरान समुद्र में से 14 लाभदायक और बहुमूल्य वस्तुएं निकली जैसे इच्छा पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, एहरावत हाथी, अप्सरा रंभा आदि।
9. देवता-असुरइन सभी वस्तुओं को देवताओं और असुरों के बीच बराबर बांटा गया लेकिन इसके बाद जो निकला उसे ना तो देवता लेने के लिए तैयार थे और ना ही असुर।
10. हलाहल विषजब इस मंथन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया तो क्षीर सागर में से हलाहल नाम का ऐसा घातक विष निकला जिसकी एक बूंद भी बड़ा सर्वनाश कर सकती थी।
11. शिव की सहायताइस हलाहल का पान करने के लिए ना तो देवता तैयार हो रहे थे और ना ही असुर। इसकी एक बूंद भी धरती पर पड़ती तो बड़ी तबाही हो जाती, ऐसे में देवता और असुर मिलकर भगवान शिव के पास सहायता मांगने गए।
12. जहर का पानशिव जी बहुत दयालु और अपने भक्तों की रक्षा करने वाले हैं, बिना किसी बात की परवाह किए उन्होंने देवताओं और असुरों की समस्या को सुलझाने और ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए उस जहर का पान कर लिया।
13. नीलकंठमाता पार्वती जानती थीं कि यह विष स्वयं महादेव के लिए भी घातक है इसलिए उन्होंने अपने हाथों से शिव के गले को पकड़ उस जहर को उनके गले में ही रोक दिया। जिसकी वजह से भगवान शिव का गला नीला पड़ गया। इस घटना के बाद से ही शिव को नीलकंठ का नाम दिया गया।
14. शिवरात्रिसमुद्र मंथन की घटना के उपलक्ष्य और भगवान शिव को धन्यवाद देने के लिए प्रतिवर्ष फाल्गुन माह की कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि का त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था।
"समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।
"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पानश्रावण मास को सभी महीनों में सबसे पवित्र माना जाता है। इस माह का प्रत्येक दिन भगवान शिव की पूजा के लिए पवित्र होता है। जो श्रावण के सोमवार को व्रत रखते हैं, भोले बाबा के आशीर्वाद से उनकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं। सावन माह को वर्षा ऋतु का महीना या पावस ऋतु भी कहा जाता है। इस माह हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी आदि प्रमुख त्योहार आते हैं।भगवान शिव को श्रावण का देवता भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन माह में ही समुद्र मंथन किया गया। हलाहल विष के पान से महादेव का कंठ नीला हो गया। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए इस माह शिवलिंग पर जल अर्पित करने का विशेष महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है कि सावन माह में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।इसलिए भगवान शिव को प्रिय है यह माह सावन माह में माता पार्वती ने निराहार रहकर कठोर व्रत किया और भगवान शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया। इसलिए यह माह भोले बाबा को प्रिय है। भगवान शिव को सावन माह प्रिय होने का एक कारण यह भी है कि माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भूलोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।
वे दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।" इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।"
विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।
श्री विष्णु और भोले बाबा के मिलन से हुआ था इस भगवान का जन्मशिवपुराण में भोले बाबा के व्यक्तित्व का संपूर्ण वृतांत दिया गया है। जिसका सम्बन्ध शैव मत से है। इस ग्रन्थ में चौबीस हजार श्लोक और सात संहिता है। इसमें वर्णित एक कथा के अनुसार श्री विष्णु और भोले बाबा के मिलन से हुआ था अयप्पा भगवान का जन्म। जिनका पूजन दक्षिण भारत में होता है। एक राक्षस को वरदान प्राप्त था की उसकी मृत्यु केवल श्री विष्णु और भोले बाबा की संतान के हाथों होगी। वो जानता था की ऐसा होना असंभव है। उसने अपना आतंक धरती पर फैला रखा था। इतिहास साक्षी है जब-जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियां बलवान हुई हैं, भगवान ने अवतार धारण करके उन्हें निष्फल किया है।
शास्त्रों के अनुसार देवों और दानवों की सामयिक संधि कराकर समुद्र मंथन की योजना बनाई गई। एतदर्थ मंदराचल पर्वत को मंथन दंड, हरि रूप कूर्म को दंड आधार तथा वासुकि नागराज को रस्सी तथा समुद्र को नवनीत पात्र बनाया। देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया जिसके फलस्वरूप निम्र 14 रत्न निकले-लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, कल्प वृक्ष, मदिरा, अमृत कलश धारी भगवान धन्वन्तरि, अप्सरा, उच्चैश्रवा नामक घोड़ा, विष्णु का धनुष, पांचजन्य शंख, विष, कामधेनु, चंद्रमा व ऐरावत हाथी।समुद्र मंथन से सर्वप्रथम हलाहल विष की प्राप्ति हुई। विष की प्रचंडता से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर शंकर भगवान ने उसको अपने कंठ में धारण किया। उसके पश्चात कामधेनु प्राप्त हुई जिसे ऋषियों को अर्पण कर दिया गया। फिर उच्चैश्रवा घोड़ा मिला जिसे दैत्यराज बाली को सौंप दिया गया इसके बाद प्रसिद्ध गजराज ऐरावत प्राप्त हुआ जो इंद्र को दे दिया गया। कौस्तुभ मणि विष्णु भगवान को और कल्पवृक्ष देवताओं को समर्पित किया गया। अप्सरा भी देवताओं को प्राप्त हुई। तत्पश्चात लक्ष्मी जी निकलीं जिन्हें प्रजा पालन परायण भगवान विष्णु का आश्रय प्राप्त हुआ। फिर वारुणी मदिरा निकली जिसे असुरों को सौंप दिया गया। अभी समुद्र मंथन हो ही रहा था, अभीष्ट वस्तु अमृत की प्राप्ति नहीं हुई थी।अमृत प्राप्ति का श्रेय भगवान धन्वन्तरि के भाग्य में था। अत: इस बार अमर अवतरित भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। आयुर्वेद शास्त्र, वनस्पति औषधि तथा अमृत हाथ में रखे हुए रत्न आभूषण व वनमाला धारण किए हुए भगवान धन्वंतरि का सुंदर रूप विश्व को लुभा रहा था। वे आयुर्वेद के प्रवर्तक, इंद्र के समान पराक्रमी व यज्ञांश भोजी थे। अमृत का कलश भगवान धन्वन्तरि के हाथों में देखते ही देव और दानव बड़े ही प्रसन्न हुए। चालाक राक्षसों ने सुधा कुंभ (अमृत कलश) को झपट कर ले लिया। तब भगवान ने विश्व मोहिनी-मोहिनी माया का स्वरूप धारण कर राक्षसों को मोहित करके मदिरा में ही आसक्त रखा और प्रजापालक देवताओं को अमृत का पान कराया जिससे वे अतुल शक्ति सम्पन्न व अमर होकर राक्षसों से सफल युद्ध कर विजयी बने।
श्री विष्णु ने मोहिनी रूप में भोले बाबा से प्रेम का निवेदन किया। जब उन्होंने उस सुंदरी का प्रस्ताव अस्विकार कर दिया तो उसने अपने प्राण त्यागने की चेतावनी दी। अत: भगवान शिव ने सुंदरी के प्रेम की अवेहलना नहीं करी। दोनों के मिलन से पैदा हुई संतान ‘अयप्पा’ ने उस राक्षस का संहार किया।
भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।
इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।
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