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शनिवार व्रत कथा Vrat-katha Shanivar
अग्नि पुराण के अनुसार शनि ग्रह की से मुक्ति के लिए "मूल" नक्षत्र युक्त शनिवार से आरंभ करके सात शनिवार शनिदेव की पूजा करनी चाहिए और व्रत करना चाहिए। 

व्रत कथाएक समय में स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए, फिर उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया।
सभी ग्रह भू-लोक राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे। जब ग्रहों ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी। 
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक लोहे के नौ आसन बनवाएं। सबसे आगे सोना और सबसे पीछे लोहे का आसन रखा गया। उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने आसन पर बैठने को कहा। उन्होंने कहा- जो जिसका आसन हो ग्रहण करें, जिसका आसन पहले होगा वह सबसे बड़ा तथा जिसका बाद में होगा वह सबसे छोटा होगा। 

चूंकि लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है। इस निर्णय से शनि देव रुष्ट होकर बोले- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो।सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा दो महीने दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से सावधान रहना। 
इस पर राजा विक्रमादित्य बोले- जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा। 
इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए। कुछ समय बाद जब राजा विक्रमादित्य पर साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ विक्रमादित्य की नगर पहुंचे। राजा विक्रमादित्य उन घोड़ों को देखकर एक अच्छे-से घोड़े को अपनी सवारी के लिए चुनकर उस पर चढ़े। राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया। राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उन्हें एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चल दिए। 

नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठ गए। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते खूंटी सोने के उस हार को निगल गई। सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि खूंटी ने हार को निगल लिया। इस पर राजा क्रोधित हुए और उन्होंने चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उन्हें सड़क पर छोड़ दिया।

कुछ दिन बाद एक तेली उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई। एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहा था, तभी नगर की राजकुमारी मनभावनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी। उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया।

राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए। उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- हे शनिदेव, आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।
शनिदेव ने कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होता रहेगा तथा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। 
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उन्होंने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।

इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ आया और राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि वह जानते थे कि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा विक्रमादित्य को पुन: को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया। सेठ ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।

राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मनभावनी और सेठ की बेटी के साथ अपने नगर वापस पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की अनुकंपा बनी रहती है और जातक के सभी दुख दूर होते हैं।

शुक्रवार व्रत कथा shukravar vrat katha
शुक्रवार के दिन मां संतोषी का व्रत-पूजन किया जाता है। इस पूजा के अंत में माता की कथा सुनी जाती है। संतोषी माता और शुक्रवार व्रत की कथा निम्न है: 


संतोषी माता व्रत कथा (Santoshi Mata Vrat Katha in Hindi)

एक बुढ़िया थी, उसके सात बेटे थे। 6 कमाने वाले थे जबकि एक निक्कमा था। बुढ़िया छहों बेटों की रसोई बनाती, भोजन कराती और उनसे जो कुछ जूठन बचती वह सातवें को दे देती। एक दिन वह पत्नी से बोला- देखो मेरी मां को मुझ पर कितना प्रेम है। वह बोली- क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुमको खिलाती है। वह बोला- ऐसा नहीं हो सकता है। मैं जब तक आंखों से न देख लूं मान नहीं सकता। बहू हंस कर बोली- देख लोगे तब तो मानोगे।
कुछ दिन बाद त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गया। वह कपड़े में से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा, मां ने उनके लिए सुन्दर आसन बिछा नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें जमाया। वह देखता रहा। छहों भोजन करके उठे तब मां ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया। जूठन साफ कर बुढ़िया मां ने उसे पुकारा- बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा। वह कहने लगा- मां मुझे भोजन नहीं करना, मैं अब परदेश जा रहा हूं। मां ने कहा- कल जाता हो तो आज चला जा। वह बोला- हां आज ही जा रहा हूं। यह कह कर वह घर से निकल गया।
सातवें बेटे का परदेश जाना 

चलते समय पत्नी की याद आ गई। वह गौशाला में कण्डे (उपले) थाप रही थी। वहां जाकर बोला- हम जावे परदेश आवेंगे कुछ काल, तुम रहियो संतोष से धर्म आपनो पाल। वह बोली- जाओ पिया आनन्द से हमारो सोच हटाय, राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय। दो निशानी आपन देख धरूं में धीर, सुधि मति हमारी बिसारियो रखियो मन गम्भीर। वह बोला- मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे। वह बोली- मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है। यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश पहुंचा।

परदेश में नौकरी 

वहां एक साहूकार की दुकान थी। वहां जाकर कहने लगा- भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरूरत थी, बोला- रह जा। लड़के ने पूछा- तनखा क्या दोगे। साहूकार ने कहा- काम देख कर दाम मिलेंगे। साहूकार की नौकरी मिली, वह सुबह 7 बजे से 10 बजे तक नौकरी बजाने लगा। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना सारा काम करने लगा। साहूकार के सात-आठ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया। वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उसपर छोड़कर चला गया।

पति की अनुपस्थिति में सास का अत्याचार 

इधर उसकी पत्नी को सास ससुर दु:ख देने लगे, सारी गृहस्थी का काम कराके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते। इस बीच घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नारेली में पानी। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी।

संतोषी माता का व्रत 

 वह वहां खड़ी होकर कथा सुनने लगी और पूछा- बहिनों तुम किस देवता का व्रत करती हो और उसके करने से क्या फल मिलता है। यदि तुम इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगे तो मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी। तब उनमें से एक स्त्री बोली- सुनो, यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और जो कुछ मन में कामना हो, सब संतोषी माता की कृपा से पूरी होती है। तब उसने उससे व्रत की विधि पूछी।

संतोषी माता व्रत विधि 

वह बोली- सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लाना। बिना परेशानी और श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन पड़े सवाया लेना। प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले तो धी का दीपक जला उसके आगे या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना। जब कार्य सिद्ध न हो नियम का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना। तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के ग्रह खोटे भी हों, तो भी माता वर्ष भर में कार्य सिद्ध करती है, फल सिद्ध होने पर उद्यापन करना चाहिए बीच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना। आठ लड़कों को भोजन कराना, जहां तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु के हों, न मिले तो रिश्तेदारों और पास-पड़ोसियों को बुलाना। उन्हें भोजन करा यथा शक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में खटाई न खाना। यह सुन बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी।

व्रत का प्रण करना और मां संतोषी का दर्शन देना 

रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देखकर पूछने लगी- यह मंदिर किसका है। सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है, यह सुनकर माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी। दीन हो विनती करने लगी- मां मैं निपट अज्ञानी हूं, व्रत के कुछ भी नियम नहीं जानती, मैं दु:खी हूं। हे माता जगत जननी मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूं। माता को दया आई - एक शुक्रवार बीता कि दूसरे को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा। यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोडऩे लगे। लड़के ताने देने लगे- काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी। बेचारी सरलता से कहती- भैया कागज आवे रुपया आवे हम सब के लिए अच्छा है। ऐसा कह कर आंखों में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी। मां मैंने तुमसे पैसा कब मांगा है। मुझे पैसे से क्या काम है। मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन मांगती हूं। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा-जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा। यह सुनकर खुशी से बावली होकर घर में जा काम करने लगी। अब संतोषी मां विचार करने लगी, इस भोली पुत्री को मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगा लेकिन कैसे? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता। उसे याद दिलाने को मुझे ही जाना पड़ेगा। इस तरह माता जी उस बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी- साहूकार के बेटे, सो रहा है या जागता है। वह कहने लगा- माता सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूं कहो क्या आज्ञा है? मां कहने लगी- तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं। वह बोला- मेरे पास सब कुछ है मां-बाप है बहू है क्या कमी है। मां बोली- भोले पुत्र तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेरे मां-बाप उसे परेशानी दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले। वह बोला- हां माता जी यह तो मालूम है, परंतु जाऊं तो कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं? मां कहने लगी- मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ।
देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, सांझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा। अब बूढ़े की बात मानकर वह नहा धोकर संतोषी माता को दण्डवत धी का दीपक जला दुकान पर जा बैठा। थोड़ी देर में देने वाले रुपया लाने लगे, लेने वाले हिसाब लेने लगे। कोठे में भरे सामान के खरीददार नकद दाम दे सौदा करने लगे। शाम तक धन का भारी ठेर लग गया। मन में माता का नाम ले चमत्कार देख प्रसन्न हो घर ले जाने के वास्ते गहना, कपड़ा सामान खरीदने लगा। यहां काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ।
उधर उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती। वह तो उसके प्रतिदिन रुकने का जो स्थान ठहरा, धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है- हे माता, यह धूल कैसे उड़ रही है? माता कहती है- हे पुत्री तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर व तीसरा अपने सिर पर। तेरे पति को लकड़ियों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहां रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर मां से मिलने जाएगा, तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर जाना और चौक में गट्ठर डालकर जोर से आवाज लगाना- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? माताजी से बहुत अच्छा कहकर वह प्रसन्न मन से लकड़ियों के तीन गट्ठर बनाई। एक नदी के किनारे पर और एक माताजी के मंदिर पर रखा।

इतने में मुसाफिर आ पहुंचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम यही पर विश्राम करें और भोजन बनाकर खा-पीकर गांव जाएं। इसी तरह रुक कर भोजन बना, विश्राम करके गांव को गया। सबसे प्रेम से मिला। उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए वह उतावली सी आती है। लकड़ियों का भारी बोझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाज देती है- लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो। आज मेहमान कौन आया है। यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन। उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है। अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है। मां से पूछता है- मां यह कौन है? मां बोली- बेटा यह तेरी बहु है। जब से तू गया है तब से सारे गांव में भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है। वह बोला- ठीक है मां मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहूंगा। मां बोली- ठीक है, जैसी तेरी मरजी। तब वह दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जमाया। एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था? बहु सुख भोगने लगी। इतने में शुक्रवार आया।

शुक्रवार व्रत के उद्यापन में हुई भूल, किया खटाई का इस्तेमाल 

उसने पति से कहा- मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। पति बोला- खुशी से कर लो। वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई। उन्होंने मंजूर किया परन्तु पीछे से जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया, देखो, भोजन के समय खटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो। लड़के जीमने आए खीर खाना पेट भर खाया, परंतु बाद में खाते ही कहने लगे- हमें खटाई दो, खीर खाना हमको नहीं भाता, देखकर अरुचि होती है। वह कहने लगी- भाई खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के उठ खड़े हुए, बोले- पैसा लाओ, भोली बहु कुछ जानती नहीं थी, उन्हें पैसे दे दिए। लड़के उसी समय हठ करके इमली खटाई ले खाने लगे। यह देखकर बहु पर माताजी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए। जेठ जेठानी मन-माने वचन कहने लगे। लूट-लूट कर धन इकट्ठा कर लाया है, अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा। बहु से यह सहन नहीं हुए।

मां संतोषी से मांगी माफी 

रोती हुई माताजी के मंदिर गई, कहने लगी- हे माता, तुमने क्या किया, हंसा कर अब भक्तों को रुलाने लगी। माता बोली- बेटी तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है। वह कहने लगी- माता मैंने कुछ अपराध किया है, मैंने तो भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, मुझे क्षमा करो। मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी। मां बोली- अब भूल मत करना। वह कहती है- अब भूल नहीं होगी, अब बतलाओ वे कैसे आवेंगे? मां बोली- जा पुत्री तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा। वह निकली, राह में पति आता मिला। वह पूछी- कहां गए थे? वह कहने लगा- इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था। वह प्रसन्न हो बोली- भला हुआ, अब घर को चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया

फिर किया व्रत का उद्यापन 

वह बोली- मुझे फिर माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा- करो। बहु फिर जेठ के लड़कों को भोजन को कहने गई। जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और सब लड़कों को सिखाने लगी। तुम सब लोग पहले ही खटाई मांगना। लड़के भोजन से पहले कहने लगे- हमें खीर नहीं खानी, हमारा जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो। वह बोली- खटाई किसी को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ, वह ब्राह्मण के लड़के लाकर भोजन कराने लगी, यथा शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया। संतोषी माता प्रसन्न हुई।

संतोषी माता का फल 

माता की कृपा होते ही नवमें मास में उसके चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को पाकर प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी। मां ने सोचा- यह रोज आती है, आज क्यों न इसके घर चलूं। यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भिन-भिन कर रही थी। देहली पर पैर रखते ही उसकी सास चिल्लाई- देखो रे, कोई चुड़ैल डाकिन चली आ रही है, लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जाएगी। लड़के भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे। बहु रौशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी- आज मेरी माता जी मेरे घर आई है। वह बच्चे को दूध पीने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फट पड़ा। वह बोली- क्या उतावली हुई है? बच्चे को पटक दिया। इतने में मां के प्रताप से लड़के ही लड़के नजर आने लगे। वह बोली- मां मैं जिसका व्रत करती हूं यह संतोषी माता है। सबने माता जी के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे- हे माता, हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, जग माता आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया, वैसा माता सबको दे, जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो। बोलो संतोषी माता की जय।

सोमवार व्रत कथा Vrat katha Somvar
हिन्दू धर्म के अनुसार सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजा की जाती है। जो व्यक्ति सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजा करते हैं उन्हें मनोवांछित फल अवश्य मिलता है।
व्रत कथा: किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके घर में धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी जिस वजह से वह बेहद दुखी था। पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिवालय में जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था। उसकी भक्ति देखकर मां पार्वती प्रसन्न हो गई और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का निवेदन किया। पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि "हे पार्वती। इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है।" लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई। माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी। 
माता पार्वती और भगवान शिव की इस बातचीत को साहूकार सुन रहा था। उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही गम। वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा। कुछ समय उपरांत साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया। 
साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराओ। जहां भी यज्ञ कराओ वहीं पर ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना।
दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े। राते में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था। लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था। राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची। साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा। 
लड़के को दूल्हे का वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया। लेकिन साहूकार का पुत्र एक ईमानदार शख्स था। उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी। उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि "तुम्हारा विवाह मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है। मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं।"
जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई। राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई। दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया। जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया। लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। मामा ने कहा कि तुम अन्दर जाकर सो जाओ। 
शिवजी के वरदानुसार कुछ ही क्षणों में उस बालक के प्राण निकल गए। मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया। संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे। पार्वती ने भगवान से कहा- प्राणनाथ, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा। आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें| जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया। अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है। लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया| शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया। शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिए। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था। उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया। उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी आवभगत की और अपनी पुत्री को विदा किया। 
इधर भूखे-प्यासे रहकर साहूकार और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है। 
जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। 

बुधवार व्रत कथा Vrat katha Budhvar
बुध ग्रह की शांति और सर्व-सुखों की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुषों को बुधवार का व्रत अवश्य करना चाहिए। कई जगह बुधवार के दिन गणेश जी के पूजा की जाती है। हालांकि बुधवार की व्रत कथा पूर्णत: भगवान बुध पर आधारित है। 

एक समय की बात है एक साहूकार अपनी पत्नी को विदा कराने के लिए अपने ससुराल गया। कुछ दिन वहां रहने के उपरांत उसने सास-ससुर से अपनी पत्नी को विदा करने के लिए कहा किंतु सास-ससुर तथा अन्य संबंधियों ने कहा कि "बेटा आज बुधवार है। बुधवार को किसी भी शुभ कार्य के लिए यात्रा नहीं करते।" लेकिन वह नहीं माना और हठ करके बुधवार के दिन ही पत्नी को विदा करवाकर अपने नगर को चल पड़ा। राह में उसकी पत्नी को प्यास लगी, उसने पति से पीने के लिए पानी मांगा। साहूकार लोटा लेकर गाड़ी से उतरकर जल लेने चला गया। जब वह जल लेकर वापस आया तो वह बुरी तरह हैरान हो उठा, क्योंकि उसकी पत्नी के पास उसकी ही शक्ल-सूरत का एक दूसरा व्यक्ति बैठा था। 

पत्नी भी अपने पति को देखकर हैरान रह गई। वह दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाई। साहूकार ने पास बैठे शख्स से पूछा कि तुम कौन हो और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठे हो? उसकी बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा- अरे भाई, यह मेरी पत्नी है। मैं अपनी पत्नी को ससुराल से विदा करा कर लाया हूं, लेकिन तुम कौन हो जो मुझसे ऐसा प्रश्न कर रहे हो? दोनों आपस में झगड़ने लगे। तभी राज्य के सिपाही आए और उन्होंने साहूकार को पकड़ लिया और स्त्री से पूछा कि तुम्हारा असली पति कौन है? उसकी पत्नी चुप रही क्योंकि दोनों को देखकर वह खुद हैरान थी कि वह किसे अपना पति कहे? साहूकार ईश्वर से प्रार्थना करते हुए बोला "हे भगवान, यह क्या लीला है?"
तभी आकाशवाणी हुई कि मूर्ख आज बुधवार के दिन तुझे शुभ कार्य के लिए गमन नहीं करना चाहिए था। तूने हठ में किसी की बात नहीं मानी। यह सब भगवान बुधदेव के प्रकोप से हो रहा है।
साहूकार ने भगवान बुधदेव से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिए क्षमा याचना की। तब मनुष्य के रूप में आए बुध देवता अंतर्ध्यान हो गए। वह अपनी स्त्री को घर ले आया। इसके पश्चात पति-पत्नी नियमपूर्वक बुधवार व्रत करने लगे। जो व्यक्ति इस कथा को कहता या सुनता है उसको बुधवार के दिन यात्रा करने का कोई दोष नहीं लगता और उसे सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है।




ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहते हैं। इस व्रत में भोजन करना और पानी पीना वर्जित है। इस बार निर्जला एकादशी 5 जून सोमवार को है। हिंदू धर्म में एकादशी व्रत का बहुत महत्व है। साल में 24 एकादशी होती है। एकादशी पर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। निर्जला एकादशी को पांडव एकादशी या भीमसेन एकादशी के नाम से जाना जाता हैं। इस व्रत से व्यक्ति को दीर्घायु अौर मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। इस दिन सुबह शीघ्र उठकर स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर भगवान विष्‍णु का ध्यान लगाकर व्रत का संकल्प लें और मंदिर जाएं। भगवान विष्‍णु की आराधना करें और पूजा अर्चना करें। इस दिन गरीबों को दान दक्षिणा देना न भूलें। अगले दिन मंगलवार को सुबह स्नानादि के बाद पूजा करने के उपरांत व्रत को खोलें।
निर्जला एकादशी व्रत की कथा:
एक बार पाण्डु पुत्र भीमसेन ने श्रील वेदव्यासजी से पूछा,” हे परमपूजनीय विद्वान पितामह! मेरे परिवार के सभी लोग एकादशी व्रत करते हैं व मुझे भी करने के लिए कहते हैं। किन्तु मुझसे भूखा नहीं रहा जाता। आप कृपा करके मुझे बताएं कि उपवास किए बिना एकादशी का फल कैसे मिल सकता है?” श्रीलवेदव्यासजी बोले,”पुत्र भीम! यदि आपको स्वर्ग बड़ा प्रिय लगता है, वहां जाने की इच्छा है और नरक से डर लगता है तो हर महीने की दोनों एकादशी को व्रत करना ही होगा।” भीम सेन ने जब ये कहा कि यह उनसे नहीं हो पाएगा तो श्रीलवेदव्यास जी बोले,”ज्येष्ठ महीने के शुल्क पक्ष की एकादशी को व्रत करना। उसे निर्जला कहते हैं। उस दिन अन्न तो क्या, पानी भी नहीं पीना। एकादशी के अगले दिन प्रातः काल स्नान करके, स्वर्ण व जल दान करना। वह करके पारण के समय (व्रत खोलने का समय) ब्राह्मणों व परिवार के साथ अन्नादि ग्रहण करके अपने व्रत को विश्राम देना। जो एकादशी तिथि के सूर्योदय से द्वादशी तिथि के सूर्योदय तक बिना पानी पीए रहता है तथा पूरी विधि से निर्जला व्रत का पालन करता है, उसे साल में जितनी एकादशियां आती हैंं उन सब एकादशियों का फल इस एक एकादशी का व्रत करने से सहज ही मिल जाता है।” यह सुनकर भीम सेन उस दिन से इस निर्जला एकादशी के व्रत का पालन करने लगे अौर वे पाप मुक्त हो गए।

जीवन में आती है बाधा तो करें ये उपाय!
आप भी अगर अपने जीवन के सभी परेशानियों से मुक्ति पाना चाहते हैं तो आज की हमारी इस खबर के माध्यम से जानें कि आज के दिन ऐसे कौन से वो उपाय हैं जिन्हें करने से आप गणेश जी की प्रसन्न कर सकते हैं. बता दें कि बुधवार का दिन रोग, आर्थिक तंगी और दोष से छुटकारा पाने का दिन होता है.

विशेष फलदायी
ज्योतिषाचार्य पंडित कपिल चतुवेर्दी का कहना है कि श्रावण मास की Sankashti Chaturthi पर भगवान गणेश की पूजा विशेष फलदायी होती है। 12 जुलाई को ये Shankashti Chaturthi दोपहर बाद लगेगी। इसदिन पूजा के लिए सुबह के समय स्नान कर गणेश जी और मां गौरी का पूजन करना चाहिए। व्रत रखने वालों को इसका लाभ जरूर मिलता है।

इन्टरनेट डेस्क। भगवान गणेश सुख समृद्धि के दाता हैं। जिन पर भगवान गणेश की कृपा हो जाती हैं। उनके सारे कार्य बिना रूके हो जाते हैं। कुछ ऐसे उपाय है जिनका उपयोग करके भगवान गणेश को प्रसन्न किया जा सकता हैं। साथ ही अपने जीवन में उत्पन्न परेशानियों और दुखों से छुटकारा पाया जा सकता हैं। आइए जाने ये विशेष उपाय....
  • गणेश जी को बुधवार को सिंदूर चढ़ाने गणपति खुश होते हैं और आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। 
  • बुधवार के दिन अगर आप किसी गरीब को मूंग दान करते है तो इससे भी भगवान गणेश प्रसन्न होते हैं। 
  • अगर बधुवार को दिन गाय को हरी घास खिलाने से सभी देवी-देवताओं की कृपा बनी रहती है और आपकी सभी इच्छाऐं पूरी होती हैं। 
  • मोदक का भोग लगाने से गणेश जी प्रसन्न होते हैं। इससे बुध के सभी दोष खत्म हो जाते हैं। 
बुधवार को करें ये काम
  • प्रात: और शाम को स्नान करने के बाद विघ्नहर्ता गणेश जी को सिंदूर चढ़ाएं. 
  •  इस बात का विशेष ध्यान रखें कि बुधवार के दिन गाय को हरा चारा खिलाना चाहिए, ऐसा करने से बुध दोष से मुक्ति मिलती है.
  •  किसी जरूरतमंद को दान में मूंगदाल दें, मंदिर में पूजा करते समय हो सके तो गणेश जी को मोदक(लड्डू) का भोग लगाएं.
  •  घर के मुख्य द्वार पर विघ्नहर्ता गणेश जी की तस्वीर लगाएं, ऐसा करने से घर में नकारात्मक प्रभाव का असर नहीं होता.
बुधवार के दिन करें ये काम, कभी नहीं होगी आर्थिक परेशानी करें श्रीगणेश की आराधना, दूर होंगे सारे कष्ट
पूजन में रखें ये सामानपंडित कपिल चतुवेर्दी का कहना है कि पूजन में दूब घास रखे और पीले रंग का मिष्ठान गणेश जी को जरूर भोग लगाएं। पूजन के बाद व्रती को फल का आहार करना चाहिए। संध्या समय में भी भगवान गणेश और मां गोरी का पूजन करना चाहिए। जब व्रत रखें तो सूर्य अस्त से पहले मीठा खाकर उपवास तोड़ें। इस व्रत में अन्न ग्रहण करना निषेध माना जाता है, इसलिए अन्न की जगह फलाहार करना उचित रहता है। 
दूर होगी नकारात्मक ऊर्जाअगर आपके घर में नकारात्मक ऊर्जा का भंडार है और कोई उपाए काम नहीं कर रहे हैं, तो इस दिन व्रत रखें। वहीं बुधवार के दिन अपने घर में श्रीगणेश जी की सफेद रंग की मूर्ति स्थापित करें। ऐसा करने से आपके घर की सभी नकारात्मक ऊर्जा बाहर निकल जाएगी। श्रीगणेश की पूजा करते समय अपना मुंह पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर रखें। बाद में आसन पर बैठकर भगवान गणेश का पूजन करें। 
करें इस मंत्र का जापश्री गणेश को तिल से बनी वस्तुओं, तिल-गुड़ के लड्‍डू तथा मोदक का भोग लगाएं। 'ऊं सिद्ध बुद्धि सहित महागणपति आपको नमस्कार है। नैवेद्य के रूप में मोदक व ऋतु फल आदि अर्पित है। गणेश पूजन के दौरान धूप-दीप आदि से श्रीगणेश की आराधना करें। फल, फूल, रौली, मौली, अक्षत, पंचामृत आदि से श्रीगणेश को स्नान कराके विधिवत तरीके से पूजा करें। 
सिंदूर चढ़ाने से मनोकामना होगी पूरीगणेश जी को सिंदूर चढ़ाए इससे आपकी सभी मनोकामनाएं जल्द ही पूर्ण होगी। सिंदूर चढ़ाते समय विशेष मंत्र को भी पढ़ें। वैसे तो हर देवी-देवता पर सिंदूर चढ़ाया जाता है, लेकिन शिव परिवार या शिव के सभी अंश अवतारों पर सिंदूर चढ़ाने का एक अलग ही महत्व है।


समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पानसमुद्र मन्थन - श्री शुकदेव जी बोले, "हे राजन्! राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर तथा दानव अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें शुक्राचार्य की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर हो जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।


सुवर्णभूमि अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, बैंगकॉक में सागर मन्थन की एक प्रतिमा के दो तरफ़ से चित्र
"भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
है भगवान शिव के नीले कंठ का रहस्य

1. भोलेनाथ के नाम
भोलेनाथ, महादेव, महेश नाजाने कितने नामों से जाने जाने वाले भगवान शिव अपने भक्तों के बीच भोलेनाथ के नाम से ज्यादा लोक प्रिय हैं। भगवान शिव अपने भक्तों में ना तो भेदभाव करते हैं और अन्य देवी-देवताओं की अपेक्षा उनसे बहुत ही जल्द प्रसन्न भी हो जाते हैं। यही वजह है कि उनके भक्त उन्हें भोलेनाथ कहते हैं। 
2. विनाश की बागडोर

सृष्टि के विनाश की डोर संभाले भगवान शिव का एक और ना भी है, नीलकंठ। इस नाम के पीछे का कारण है उनका नीला कंठ, जो इस बात का प्रमाण है कि शिव सृष्टि को बुराई और पाप से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
3. शिव का स्वरूप

शिव के स्वरूप को कुछ इस तरह बेहतर समझा जा सकता है, बालों में गंगा को संभाले, बालों में चंद्र का मुकुट और गले में सांप को लटकाए, हाथ में त्रिशूल और अपने प्रिय वाहन नंदी की सवारी करने वाले वो देव जो हमेशा सेही मानव जाति के रक्षक और बुरी शक्तियों के लिए विनाशक रहे हैं। 
4. भिन्न-भिन्न स्वरूप

शिव के भिन्न-भिन्न भक्त उन्हें भिन्न-भिन्न स्वरूपों में देखते हैं। इन्हीं स्वरूपों के आधार पर उन्हें अलग-अलग नाम भी दिए गए हैं। आज हम आपको उनके नीलकंठ होने का रहस्य बताएंगे। 
5. इन्द्र को श्राप

पुराणों के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि ने अपने अपमान से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र को यह श्राप दिया कि वे लक्ष्मी (धन) विहीन हो जाएंगे। ऐसे में इन्द्र, भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने के लिए गए। भगवान विष्णु ने उन्हें श्राप से मुक्ति पाने का एक मार्ग बताया। 
6. समुद्र मंथन

भगवान विष्णु ने इन्द्र देव को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा, जिसके लिए असुरों को अमृत का लालच दिया गया। 
7. मंथन की शुरुआत

मंदार पर्वत, वासुकी नाग और स्वयं भगवान विष्णु के कच्छप अवतार की सहायता से समुद्र मंथन की शुरुआत हुई, एक तरफ असुर और दूसरी तरह देवता। 
8. 14 लाभदायक वस्तुएं

इस मंथन के दौरान समुद्र में से 14 लाभदायक और बहुमूल्य वस्तुएं निकली जैसे इच्छा पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, एहरावत हाथी, अप्सरा रंभा आदि। 
9. देवता-असुर

इन सभी वस्तुओं को देवताओं और असुरों के बीच बराबर बांटा गया लेकिन इसके बाद जो निकला उसे ना तो देवता लेने के लिए तैयार थे और ना ही असुर। 
10. हलाहल विष

जब इस मंथन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया तो क्षीर सागर में से हलाहल नाम का ऐसा घातक विष निकला जिसकी एक बूंद भी बड़ा सर्वनाश कर सकती थी। 
11. शिव की सहायता

इस हलाहल का पान करने के लिए ना तो देवता तैयार हो रहे थे और ना ही असुर। इसकी एक बूंद भी धरती पर पड़ती तो बड़ी तबाही हो जाती, ऐसे में देवता और असुर मिलकर भगवान शिव के पास सहायता मांगने गए। 
12. जहर का पान

शिव जी बहुत दयालु और अपने भक्तों की रक्षा करने वाले हैं, बिना किसी बात की परवाह किए उन्होंने देवताओं और असुरों की समस्या को सुलझाने और ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए उस जहर का पान कर लिया। 
13. नीलकंठ

माता पार्वती जानती थीं कि यह विष स्वयं महादेव के लिए भी घातक है इसलिए उन्होंने अपने हाथों से शिव के गले को पकड़ उस जहर को उनके गले में ही रोक दिया। जिसकी वजह से भगवान शिव का गला नीला पड़ गया। इस घटना के बाद से ही शिव को नीलकंठ का नाम दिया गया। 
14. शिवरात्रि

समुद्र मंथन की घटना के उपलक्ष्य और भगवान शिव को धन्यवाद देने के लिए प्रतिवर्ष फाल्गुन माह की कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि का त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था।
"समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।

"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पान

श्रावण मास को सभी महीनों में सबसे पवित्र माना जाता है। इस माह का प्रत्येक दिन भगवान शिव की पूजा के लिए पवित्र होता है। जो श्रावण के सोमवार को व्रत रखते हैं, भोले बाबा के आशीर्वाद से उनकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं। सावन माह को वर्षा ऋतु का महीना या पावस ऋतु भी कहा जाता है। इस माह हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी आदि प्रमुख त्योहार आते हैं। 
भगवान शिव को श्रावण का देवता भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन माह में ही समुद्र मंथन किया गया। हलाहल विष के पान से महादेव का कंठ नीला हो गया। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए इस माह शिवलिंग पर जल अर्पित करने का विशेष महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है कि सावन माह में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं। 
इसलिए भगवान शिव को प्रिय है यह माह सावन माह में माता पार्वती ने निराहार रहकर कठोर व्रत किया और भगवान शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया। इसलिए यह माह भोले बाबा को प्रिय है। भगवान शिव को सावन माह प्रिय होने का एक कारण यह भी है कि माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भूलोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।
वे दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।" इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।"

विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।
श्री विष्णु और भोले बाबा के मिलन से हुआ था इस भगवान का जन्म
शिवपुराण में भोले बाबा के व्यक्तित्व का संपूर्ण वृतांत दिया गया है। जिसका सम्बन्ध शैव मत से है। इस ग्रन्थ में चौबीस हजार श्लोक और सात संहिता है। इसमें वर्णित एक कथा के अनुसार श्री विष्णु और भोले बाबा के मिलन से हुआ था अयप्पा भगवान का जन्म। जिनका पूजन दक्षिण भारत में होता है। एक राक्षस को वरदान प्राप्त था की उसकी मृत्यु केवल श्री विष्णु और भोले बाबा की संतान के हाथों होगी। वो जानता था की ऐसा होना असंभव है। उसने अपना आतंक धरती पर फैला रखा था। इतिहास साक्षी है जब-जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियां बलवान हुई हैं, भगवान ने अवतार धारण करके उन्हें निष्फल किया है।
शास्त्रों के अनुसार देवों और दानवों की सामयिक संधि कराकर समुद्र मंथन की योजना बनाई गई। एतदर्थ मंदराचल पर्वत को मंथन दंड, हरि रूप कूर्म को दंड आधार तथा वासुकि नागराज को रस्सी तथा समुद्र को नवनीत पात्र बनाया। देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया जिसके फलस्वरूप निम्र 14 रत्न निकले-लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, कल्प वृक्ष, मदिरा, अमृत कलश धारी भगवान धन्वन्तरि, अप्सरा, उच्चैश्रवा नामक घोड़ा, विष्णु का धनुष, पांचजन्य शंख, विष, कामधेनु, चंद्रमा व ऐरावत हाथी।

समुद्र मंथन से सर्वप्रथम हलाहल विष की प्राप्ति हुई। विष की प्रचंडता से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर शंकर भगवान ने उसको अपने कंठ में धारण किया। उसके पश्चात कामधेनु प्राप्त हुई जिसे ऋषियों को अर्पण कर दिया गया। फिर उच्चैश्रवा घोड़ा मिला जिसे दैत्यराज बाली को सौंप दिया गया इसके बाद प्रसिद्ध गजराज ऐरावत प्राप्त हुआ जो इंद्र को दे दिया गया। कौस्तुभ मणि विष्णु भगवान को और कल्पवृक्ष देवताओं को समर्पित किया गया। अप्सरा भी देवताओं को प्राप्त हुई। तत्पश्चात लक्ष्मी जी निकलीं जिन्हें प्रजा पालन परायण भगवान विष्णु का आश्रय प्राप्त हुआ। फिर वारुणी मदिरा निकली जिसे असुरों को सौंप दिया गया। अभी समुद्र मंथन हो ही रहा था, अभीष्ट वस्तु अमृत की प्राप्ति नहीं हुई थी।
अमृत प्राप्ति का श्रेय भगवान धन्वन्तरि के भाग्य में था। अत: इस बार अमर अवतरित भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। आयुर्वेद शास्त्र, वनस्पति औषधि तथा अमृत हाथ में रखे हुए रत्न आभूषण व वनमाला धारण किए हुए भगवान धन्वंतरि का सुंदर रूप विश्व को लुभा रहा था। वे आयुर्वेद के प्रवर्तक, इंद्र के समान पराक्रमी व यज्ञांश भोजी थे। अमृत का कलश भगवान धन्वन्तरि के हाथों में देखते ही देव और दानव बड़े ही प्रसन्न हुए। चालाक राक्षसों ने सुधा कुंभ (अमृत कलश) को झपट कर ले लिया। तब भगवान ने विश्व मोहिनी-मोहिनी माया का स्वरूप धारण कर राक्षसों को मोहित करके मदिरा में ही आसक्त रखा और प्रजापालक देवताओं को अमृत का पान कराया जिससे वे अतुल शक्ति सम्पन्न व अमर होकर राक्षसों से सफल युद्ध कर विजयी बने।
श्री विष्णु ने मोहिनी रूप में भोले बाबा से प्रेम का निवेदन किया। जब उन्होंने उस सुंदरी का प्रस्ताव अस्विकार कर दिया तो उसने अपने प्राण त्यागने की चेतावनी दी। अत: भगवान शिव ने सुंदरी के प्रेम की अवेहलना नहीं करी। दोनों के मिलन से पैदा हुई संतान ‘अयप्पा’ ने उस राक्षस का संहार किया।
भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।

इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।

 विश्वकर्मा पूजा  Vishwakarma Puja
हस्तशिल्पी कलाकार भगवान विश्वकर्मा की जयंती हर साल 17 सितंबर को मनाई जाती है, इसे विश्वकर्मा पूजा के नाम से भी जानते हैं. इस दिन सभी निर्माण के कार्य में उपयोग होने वाले हथियारों और औजारों की पूजा की जाती है. उद्योग जगत के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती पर उनकी विधिविधान से पूजा करने से विशेष फल की प्राप्‍त‍ि होती है. भगवान विश्वकर्मा खुश होते हैं तो व्‍यवसाय में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्‍की होती है. विश्वकर्मा देव ने पूरी श्रृष्टि का निर्माण किया इन्हें सृष्टि का निर्माणकर्ता कहते हैं.

कब मनाई जाती है विश्वकर्मा पूजा
विश्वकर्मा पूजा यानि विश्वकर्मा जयंती हर साल कन्या संक्रांति के दिन 17 सितंबर को मनाई जाती है. इस साल भगवान विश्वकर्मा जयंती रवि‍वार के दिन मनाई जाएगी.

समुद्र मंथन से हुआ था भगवान विश्वकर्मा का जन्म
माना जाता है कि प्राचीन काल में सभी का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था. 'स्वर्ग लोक', सोने का शहर - 'लंका' और कृष्ण की नगरी - 'द्वारका', सभी का निर्माण विश्वकर्मा के ही हाथों हुआ था. कुछ कथाओं के अनुसार भगवान विश्वकर्मा का जन्म देवताओं और राक्षसों के बीच हुए समुद्र मंथन से माना जाता है.

पूरे ब्रह्मांड का किया था निर्माण
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार उन्होंने पूरे ब्रह्मांड का निर्माण किया है. पौराणिक युग में इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों को भी विश्वकर्मा ने ही बनाया था जिसमें 'वज्र' भी शामिल है, जो भगवान इंद्र का हथियार था. वास्तुकार कई युगों से भगवान विश्वकर्मा अपना गुरू मानते हुए उनकी पूजा करते आ रहे हैं.

विश्वकर्मा पूजा की विधि

  • - विश्वकर्मा पूजा के लिए भगवान विश्वकर्मा की प्रतिमा को विराजित कर इनकी पूजा की जाती है, हालांकि कई अपने कल-पुर्जे को ही भगवान विश्वकर्मा मानकर पूजा करते हैं. इस दिन कई जगहों पर यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है.
  • - इस दिन पूजा में बैठने से पहले स्‍नान कर लें और भगवान विष्‍णु का ध्‍यान करने के बाद एक चौकी पर भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति या तस्‍वीर रखें.
  • - इसके बाद अपने दाहिने हाथ में फूल, अक्षत लेकर मंत्र पढ़े और अक्षत को चारों ओर छिड़के दें और फूल को जल में छोड़ दें.
  • - इसके बाद हाथ रक्षासूत्र मौली या कलावा बांधे. फिर भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करने के बाद उनकी विधिव‍त पूजा करें.
  • - पूजा के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि को जल, रोली, अक्षत, फूल और मि‍ठाई से पूजें और फिर विधिव‍त हवन करें.

भगवान विश्वकर्मा की पूजा का मंत्र
ॐ आधार शक्तपे नम: और ॐ कूमयि नम:, ॐ अनन्तम नम:, ॐ पृथिव्यै नम:

गोवर्धन पूजा कथा Vrat-katha Govardhan Puja
कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन पूजा  (Govardhan Puja) की जाती है। हिन्दू मान्यतानुसार महाभारत काल में इसी दिन भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की थी। तभी से यह परंपरा कायम है। साल 2016 में गोवर्धन पूजा 31 अक्टूबर को की जाएगी। गोवर्धन पूजा से जुड़ी कथा निम्न है:

गोवर्धन पूजा Wallpaper Download
एक बार की बात है इंद्र को अपनी शक्तियों पर घमंड हो गया। तब भगवान कृष्ण ने उनके घमंड को चूर करने के लिए एक लीला रची। इसमें उन्होंने सभी ब्रजवासियों और अपनी माता को एक पूजा की तैयारी करते हुए देखा तो, यशोदा मां से पूछने लगे, "मईया आप सब किसकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं?” तब माता ने उन्हें बताया कि 'वह इन्द्रदेव की पूजा की तैयारी कर रही हैं।"
फिर भगवान कृष्ण ने पूछा "मैइया हम सब इंद्र की पूजा क्यों करते है? तब मईया ने बताया कि 'इंद्र वर्षा करते हैं और उसी से हमें अन्न और हमारी गाय के घास मिलता है। यह सुनकर कृष्ण जी ने तुरंत कहा "मैइया हमारी गाय तो अन्न गोवर्धन पर्वत पर चरती है, तो हमारे लिए वही पूजनीय होना चाहिए। इंद्र देव तो घमंडी हैं वह कभी दर्शन नहीं देते हैं। 

कृष्ण की बात मानते हुए सभी ब्रजवासियों ने इन्द्रदेव के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इस पर क्रोधित होकर भगवान इंद्र ने मूसलाधार बारिश शुरू कर दी। वर्षा को बाढ़ का रूप लेते देख सभी  ब्रज के निवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगें। तब कृष्ण जी ने वर्षा से लोगों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कानी उंगली पर उठा लिया। 
इसके बाद सब को अपने गाय सहित पर्वत के नीचे शरण लेने को कहा। इससे इंद्र देव और अधिक क्रोधित हो गए तथा वर्षा की गति और तेज कर दी। इन्द्र का अभिमान चूर करने के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियंत्रित करने को और शेषनाग से मेंड़ बनाकर पर्वत की ओर पानी आने से रोकने को कहा। 
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इंद्र देव लगातार रात- दिन मूसलाधार वर्षा करते रहे। काफी समय बीत जाने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। तब वह ब्रह्मा जी के पास गए तब उन्हें ज्ञात हुआ की श्रीकृष्ण कोई और नहीं स्वयं श्री हरि विष्णु के अवतार हैं। इतना सुनते ही वह श्री कृष्ण के पास जाकर उनसे क्षमा याचना करने लगें। इसके बाद देवराज इन्द्र ने कृष्ण की पूजा की और उन्हें भोग लगाया। तभी से गोवर्धन पूजा की परंपरा कायम है। मान्यता है कि इस दिन गोवर्धन पर्वत और गायों की पूजा करने से भगवान कृष्ण प्रसन्न होते हैं।

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कार्तिक पूर्णिमा Vrat-katha Kartik Purnima
कार्तिक पूर्णिमा को कई जगह देव दीपावली के नाम से भी जाना जाता है। साल में कार्तिक पूर्णिमा 14 नवंबर को मनाई जाएगी। इस दिन व्रत रखना बेहद शुभ और पुण्य का काम माना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा (Kartik Poornima) के नाम से भी जाना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का अंत किया था। इस दिन से जुड़ी एक कथा निम्न है: 

एक बार की बात है त्रिपुर नामक राक्षस ने कठोर तपस्या की। त्रिपुर की इस घोर तपस्या के प्रभाव से सभी जड़-चेतन, जीव-जन्तु तथा देवता भयभीत होने लगे। तब देवताओं ने त्रिपुर की तपस्या को भंग करने के लिए खूबसूरत अप्सराएं भेजीं। 

परंतु त्रक्षिपुर की कठोर तपस्या में वह बाधा डालने में सफल न पाईं। अंत में ब्रह्मा जी स्वयं उसके सामने प्रकट हुए तथा उससे वर मांगने के लिए कहा।

तब त्रिपुर ने ब्रह्मा जी से वर मांगते हुए कहा 'न मैं देवताओं के हाथ से मरु, न मनुष्यों के हाथ से।' वरदान मिलते ही त्रिपुर निडर होकर लोगों पर अत्याचार करने लगा। जब उसका इन बातों से भी मन न भरा तो, उसने कैलाश पर्वत पर ही चढ़ाई कर दी। इसके परिणाम स्वरूप भगवान शिव और त्रिपुर के बीच घमासान युद्ध होने लगा। 
काफी समय तक युद्ध चलने के बाद अंत में भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु की सहायता से उसका वध कर दिया। इस दिन से ही क्षीरसागर दान का अनंत माहात्म्य माना जाता है। 
कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima) के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि का विशेष महत्व होता है। कहा जाता है कि इस दिन दान का फल दोगुना या इससे अधिक भी मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख धर्म के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। 

करवा चौथ 2017: जानिए क्या है भारत में करवाचौथ मनाने का महत्तव, कई हैं पौराणिक कथाएं festival karwa chauth 2017 puja vidhi history importance and significance of karva chauth festival in india
Karwa Chauth 2017 Puja Vidhi: करवाचौथ की शुरुआत किसी एक कथा के कारण नहीं हुई थी इसलिए इस त्योहार की बहुत अधिक महत्वता है। इस दिन के लिए कई सारी कथाओं का प्रचलन है।
करवा चौथ 2017: जानिए क्या है भारत में करवाचौथ मनाने का महत्तव, कई हैं पौराणिक कथाएं
Karwa Chauth Vidhi: क्या है करवाचौथ का महत्व।
Karwa Chauth 2017: करवाचौथ हिंदू पंचाग के अनुसार कार्तिक माह के चौथे दिन होता है। पंरपराओं के अनुसार इस दिन शादीशुदा महिलाएं या जिनकी शादी होने वाली हैं वो अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत करती हैं। ये व्रत सुबह सूरज उगने से पहले से लेकर और रात्रि में चंद्रमा निकलने तक रहता है। ये एकदिवसीय त्योहार अधिकतर उत्तरी भारत के राज्यों में मनाया जाता है। हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, राज्यस्थान और उत्तर प्रदेश में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन सिर्फ पति की लंबी आयु की ही नहीं उसके काम-धंधे, धन आदि इच्छाओं की पूर्ति की प्रार्थना करती हैं। करवाचौथ की शुरुआत किसी एक कथा के कारण नहीं हुई थी इसलिए इस त्योहार की बहुत अधिक महत्वता है। इस दिन के लिए कई सारी कथाओं का प्रचलन है।

करवाचौथ शादीशुदा महिलाओं का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। इस त्योहार की महत्वता एक समय में बहुत हुआ करती थी, इस दिन सभी शादीशुदा महिलाएं इकठ्ठा होकर पूजा करती थी और पंरपराओं के अनुसार मां गौरी का पूजन करती थीं। मां गौरी भगवान शिव की पत्नी हैं इस दिन उनकी कथा सुनना शुभ माना जाता है। महाभारत के वर्ण पर्व के अनुसार करवाचौथ इसलिए मनाया जाता है क्योंकि इस दिन देवी सावित्रि ने अपने पति के प्राण वापस लाने के लिए यमदूत से प्रार्थना की थी और उसके लिए व्रत किया था। एक अन्य कहानी के अनुसार महिलाएं अपने पति की रक्षा के लिए व्रत करती थी, जब उनके पति कई दिनों के लिए युद्ध पर जाते थे। इस दिन वो भूखी रहती थी और अपने सबसे सुंदर वस्त्र पहनती थीं।

एक समय की बात है कि एक गांव में करवा नाम की पतिव्रता स्त्री रहती थी। एक दिन करवा के पति नदी में स्नान करने गए। स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने करवा के पति के पांव पकड़ लिए और नदी के अंदर खींचने लगा। प्राण पर आये संकट को देखकर करवा के पति ने करवा को पुकारना शुरू किया। करवा दौड़कर नदी के तट पर पहुंची जहां मगरमच्छ उसके पति के प्राण लेने पर तुला था। करवा ने झट से एक कच्चे धागे से मगर को बांध दिया व भागकर यमराज के पास पहुंची। यमराज से कहा कि- मगरमच्छ ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है इसलिए उसे मेरे पति के पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में भेज दो। यमराज ने कहा कि- मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मगरमच्‍छ की आयु अभी शेष है। इस पर करवा बोली- अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूंगी। करवा के ऐसे वचन सुनकर यमराज डर गए और करवा के साथ आकर मगरमच्छ को यमपुरी भेज दिया, जिससे करवा के पति को दीर्घायु का आशीर्वाद मिला। कथा पूरी होने के बाद महिलाएं प्रार्थना करती हैं कि हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।

करवा चौथ: व्हॉट्सएप समेत सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले लतीफे viral karva chauth jokes on whatsapp and facebook
यहां व्हॉट्सएप समेत सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले लतीफे हैं, जो आपको ठहाका लगाने के लिए मजबूर कर देंगे। तो फिर देर किस बात की... हो जाइए शुरू...


पति करवा चौथ की रात पत्नी से-



पूरा साल लड़ती रहती हो...


जब मैं इतना ही खराब हूं तो भगवान से अगले जन्म के लिए क्यो मांग रही हो?

पत्नी तुनक कर.. अच्छा बड़े सयाने हो, इतना सुधारने के बाद, किसी और को दे दूं?

😜😝😂
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बेचारे पति

मैंने भी तुम्हारे लिए व्रत रखा है...


ऐसा बोल कर ऑफिस में समोसे ठूंसने वाले पतियों...


इस बार करवाचौथ रविवार को है..!!


😝😝😝😝😝😝

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हॉस्पिटल में बुरी तरह जख्मी पंडित जी से मिलने गए


मैंने पूछा - क्या हुआ था ? 

कैसे लगी?

यार करवाचौथ की शाम को छत पर तेरी भाभी से अपनी आदत के अनुसार हड़बड़ी में बोल दिया - 


जल्दी पूजा करो ......दो, तीन जगह और जाना है ।


#फेकदियेगयेछतसे

😱😱😂😝😜😁

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Congratulations..

To All Husbands..

For Renewal Of Their Annual Life Insurance


करवाचौथ की बधाई

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एंजल प्रिया को बधाई

उन पुरुषों को भी करवा चौथ की बधाई, 

जिन्होंनें महिलाओं के नाम से फेसबुक पर 'फेक आईडी' बना रखी है।


सदा सुहागन रहो।

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फेकिंग न्यूज- 


पूरे इंडिया में मोबाइल कंपनी

को 2000 करोड़ रूपये का घाटा! 

करवा चौथ की मेहंदी लगी होने के कारण
सभी औरतों ने 4 घण्टे व्हॉट्सएप का त्याग किया।
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गालिब की नजर में करवा चौथ


रात का मंजर कुछ ऐसा था गालिब

महिलाएं आसमान मे चांद देख रही थी

और पुरूष अगल बगल की छत पर!
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करवा चौथ स्पेशल
जो अमृत पीते हैं उन्हें देव...
और जो विष पीते हैं उन्हें 'महादेव' कहते है...
लेकिन विष पीकर भी जो अमृत जैसा मुंह बनाए उसे
'पतिदेव' कहते हैं...
😂😂😜😂😜


सोनपापड़ी


इस दीवाली को सोनपापड़ी पर रोक लगा देना चाहिए।

खाता कोई नहीं, एक ही डिब्बा एक घर से दूसरे घर घूमता रहता है।

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ब्लू व्हेल गेम


ब्लू व्हेल का खौफ इतना है कि


दीवाली की तैयारी में साला पंखा साफ करने चढ़ा 


तो बच्चे शोर मचाने लगे कि

मम्मी, जल्दी आओ।


पापा आखरी स्टेप तक पहुंच गए हैं..

😜😍😆😡😡😡😳😳😳😝😝😝😝😝😝😝

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मां ने लगाए थप्पड़

लड़का - मैं ऐसी लड़की से शादी करूंगा जो मेरी बूढ़ी मां की सेवा करे....

मां ने दो-तीन थप्पड़ जमा दिए 


मां- बूढ़ी किसको बोला रे


😂😂😂😂🤒😡😡😡👊👊😹😹😹💥💥

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किसकी गलती?
अगर आपकी बीवी को भूत पकड़ ले, तो आप क्या करोगे..? 😥
Santa:- मैंने क्या करना है ?😏... .. गलती भूत की है, खुद भुगतेगा.😝😝😝

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Satish Kumar

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