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समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पानसमुद्र मन्थन - श्री शुकदेव जी बोले, "हे राजन्! राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर तथा दानव अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें शुक्राचार्य की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर हो जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।


सुवर्णभूमि अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, बैंगकॉक में सागर मन्थन की एक प्रतिमा के दो तरफ़ से चित्र
"भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
है भगवान शिव के नीले कंठ का रहस्य

1. भोलेनाथ के नाम
भोलेनाथ, महादेव, महेश नाजाने कितने नामों से जाने जाने वाले भगवान शिव अपने भक्तों के बीच भोलेनाथ के नाम से ज्यादा लोक प्रिय हैं। भगवान शिव अपने भक्तों में ना तो भेदभाव करते हैं और अन्य देवी-देवताओं की अपेक्षा उनसे बहुत ही जल्द प्रसन्न भी हो जाते हैं। यही वजह है कि उनके भक्त उन्हें भोलेनाथ कहते हैं। 
2. विनाश की बागडोर

सृष्टि के विनाश की डोर संभाले भगवान शिव का एक और ना भी है, नीलकंठ। इस नाम के पीछे का कारण है उनका नीला कंठ, जो इस बात का प्रमाण है कि शिव सृष्टि को बुराई और पाप से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
3. शिव का स्वरूप

शिव के स्वरूप को कुछ इस तरह बेहतर समझा जा सकता है, बालों में गंगा को संभाले, बालों में चंद्र का मुकुट और गले में सांप को लटकाए, हाथ में त्रिशूल और अपने प्रिय वाहन नंदी की सवारी करने वाले वो देव जो हमेशा सेही मानव जाति के रक्षक और बुरी शक्तियों के लिए विनाशक रहे हैं। 
4. भिन्न-भिन्न स्वरूप

शिव के भिन्न-भिन्न भक्त उन्हें भिन्न-भिन्न स्वरूपों में देखते हैं। इन्हीं स्वरूपों के आधार पर उन्हें अलग-अलग नाम भी दिए गए हैं। आज हम आपको उनके नीलकंठ होने का रहस्य बताएंगे। 
5. इन्द्र को श्राप

पुराणों के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि ने अपने अपमान से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र को यह श्राप दिया कि वे लक्ष्मी (धन) विहीन हो जाएंगे। ऐसे में इन्द्र, भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने के लिए गए। भगवान विष्णु ने उन्हें श्राप से मुक्ति पाने का एक मार्ग बताया। 
6. समुद्र मंथन

भगवान विष्णु ने इन्द्र देव को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा, जिसके लिए असुरों को अमृत का लालच दिया गया। 
7. मंथन की शुरुआत

मंदार पर्वत, वासुकी नाग और स्वयं भगवान विष्णु के कच्छप अवतार की सहायता से समुद्र मंथन की शुरुआत हुई, एक तरफ असुर और दूसरी तरह देवता। 
8. 14 लाभदायक वस्तुएं

इस मंथन के दौरान समुद्र में से 14 लाभदायक और बहुमूल्य वस्तुएं निकली जैसे इच्छा पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, एहरावत हाथी, अप्सरा रंभा आदि। 
9. देवता-असुर

इन सभी वस्तुओं को देवताओं और असुरों के बीच बराबर बांटा गया लेकिन इसके बाद जो निकला उसे ना तो देवता लेने के लिए तैयार थे और ना ही असुर। 
10. हलाहल विष

जब इस मंथन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया तो क्षीर सागर में से हलाहल नाम का ऐसा घातक विष निकला जिसकी एक बूंद भी बड़ा सर्वनाश कर सकती थी। 
11. शिव की सहायता

इस हलाहल का पान करने के लिए ना तो देवता तैयार हो रहे थे और ना ही असुर। इसकी एक बूंद भी धरती पर पड़ती तो बड़ी तबाही हो जाती, ऐसे में देवता और असुर मिलकर भगवान शिव के पास सहायता मांगने गए। 
12. जहर का पान

शिव जी बहुत दयालु और अपने भक्तों की रक्षा करने वाले हैं, बिना किसी बात की परवाह किए उन्होंने देवताओं और असुरों की समस्या को सुलझाने और ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए उस जहर का पान कर लिया। 
13. नीलकंठ

माता पार्वती जानती थीं कि यह विष स्वयं महादेव के लिए भी घातक है इसलिए उन्होंने अपने हाथों से शिव के गले को पकड़ उस जहर को उनके गले में ही रोक दिया। जिसकी वजह से भगवान शिव का गला नीला पड़ गया। इस घटना के बाद से ही शिव को नीलकंठ का नाम दिया गया। 
14. शिवरात्रि

समुद्र मंथन की घटना के उपलक्ष्य और भगवान शिव को धन्यवाद देने के लिए प्रतिवर्ष फाल्गुन माह की कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि का त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था।
"समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।

"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
समुद्र मंथन, भोले बाबा ने किया था विष का पान

श्रावण मास को सभी महीनों में सबसे पवित्र माना जाता है। इस माह का प्रत्येक दिन भगवान शिव की पूजा के लिए पवित्र होता है। जो श्रावण के सोमवार को व्रत रखते हैं, भोले बाबा के आशीर्वाद से उनकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं। सावन माह को वर्षा ऋतु का महीना या पावस ऋतु भी कहा जाता है। इस माह हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी आदि प्रमुख त्योहार आते हैं। 
भगवान शिव को श्रावण का देवता भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन माह में ही समुद्र मंथन किया गया। हलाहल विष के पान से महादेव का कंठ नीला हो गया। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए इस माह शिवलिंग पर जल अर्पित करने का विशेष महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है कि सावन माह में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं। 
इसलिए भगवान शिव को प्रिय है यह माह सावन माह में माता पार्वती ने निराहार रहकर कठोर व्रत किया और भगवान शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया। इसलिए यह माह भोले बाबा को प्रिय है। भगवान शिव को सावन माह प्रिय होने का एक कारण यह भी है कि माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भूलोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।
वे दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।" इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।"

विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।
श्री विष्णु और भोले बाबा के मिलन से हुआ था इस भगवान का जन्म
शिवपुराण में भोले बाबा के व्यक्तित्व का संपूर्ण वृतांत दिया गया है। जिसका सम्बन्ध शैव मत से है। इस ग्रन्थ में चौबीस हजार श्लोक और सात संहिता है। इसमें वर्णित एक कथा के अनुसार श्री विष्णु और भोले बाबा के मिलन से हुआ था अयप्पा भगवान का जन्म। जिनका पूजन दक्षिण भारत में होता है। एक राक्षस को वरदान प्राप्त था की उसकी मृत्यु केवल श्री विष्णु और भोले बाबा की संतान के हाथों होगी। वो जानता था की ऐसा होना असंभव है। उसने अपना आतंक धरती पर फैला रखा था। इतिहास साक्षी है जब-जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियां बलवान हुई हैं, भगवान ने अवतार धारण करके उन्हें निष्फल किया है।
शास्त्रों के अनुसार देवों और दानवों की सामयिक संधि कराकर समुद्र मंथन की योजना बनाई गई। एतदर्थ मंदराचल पर्वत को मंथन दंड, हरि रूप कूर्म को दंड आधार तथा वासुकि नागराज को रस्सी तथा समुद्र को नवनीत पात्र बनाया। देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया जिसके फलस्वरूप निम्र 14 रत्न निकले-लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, कल्प वृक्ष, मदिरा, अमृत कलश धारी भगवान धन्वन्तरि, अप्सरा, उच्चैश्रवा नामक घोड़ा, विष्णु का धनुष, पांचजन्य शंख, विष, कामधेनु, चंद्रमा व ऐरावत हाथी।

समुद्र मंथन से सर्वप्रथम हलाहल विष की प्राप्ति हुई। विष की प्रचंडता से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर शंकर भगवान ने उसको अपने कंठ में धारण किया। उसके पश्चात कामधेनु प्राप्त हुई जिसे ऋषियों को अर्पण कर दिया गया। फिर उच्चैश्रवा घोड़ा मिला जिसे दैत्यराज बाली को सौंप दिया गया इसके बाद प्रसिद्ध गजराज ऐरावत प्राप्त हुआ जो इंद्र को दे दिया गया। कौस्तुभ मणि विष्णु भगवान को और कल्पवृक्ष देवताओं को समर्पित किया गया। अप्सरा भी देवताओं को प्राप्त हुई। तत्पश्चात लक्ष्मी जी निकलीं जिन्हें प्रजा पालन परायण भगवान विष्णु का आश्रय प्राप्त हुआ। फिर वारुणी मदिरा निकली जिसे असुरों को सौंप दिया गया। अभी समुद्र मंथन हो ही रहा था, अभीष्ट वस्तु अमृत की प्राप्ति नहीं हुई थी।
अमृत प्राप्ति का श्रेय भगवान धन्वन्तरि के भाग्य में था। अत: इस बार अमर अवतरित भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। आयुर्वेद शास्त्र, वनस्पति औषधि तथा अमृत हाथ में रखे हुए रत्न आभूषण व वनमाला धारण किए हुए भगवान धन्वंतरि का सुंदर रूप विश्व को लुभा रहा था। वे आयुर्वेद के प्रवर्तक, इंद्र के समान पराक्रमी व यज्ञांश भोजी थे। अमृत का कलश भगवान धन्वन्तरि के हाथों में देखते ही देव और दानव बड़े ही प्रसन्न हुए। चालाक राक्षसों ने सुधा कुंभ (अमृत कलश) को झपट कर ले लिया। तब भगवान ने विश्व मोहिनी-मोहिनी माया का स्वरूप धारण कर राक्षसों को मोहित करके मदिरा में ही आसक्त रखा और प्रजापालक देवताओं को अमृत का पान कराया जिससे वे अतुल शक्ति सम्पन्न व अमर होकर राक्षसों से सफल युद्ध कर विजयी बने।
श्री विष्णु ने मोहिनी रूप में भोले बाबा से प्रेम का निवेदन किया। जब उन्होंने उस सुंदरी का प्रस्ताव अस्विकार कर दिया तो उसने अपने प्राण त्यागने की चेतावनी दी। अत: भगवान शिव ने सुंदरी के प्रेम की अवेहलना नहीं करी। दोनों के मिलन से पैदा हुई संतान ‘अयप्पा’ ने उस राक्षस का संहार किया।
भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।

इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।

दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का त्योहार है। इसीलिए इसे विजयदशमी भी कहा जाता है। मान्यता है कि रामचंद्रजी ने रावण से 10 दिन तक युद्ध किया था। रावण को अपनी भूल सुधार के कई अवसर श्रीराम ने दिए और जब रावण ने अपनी गलती नहीं सुधारी तो श्रीराम ने उसका वध कर दिया। यहां कुछ सुंदर बधाई संदेश दिए गए हैं, आप इन संदेशों के जरिए अपने परिजनों को दशहरा की बधाई दे सकते हैं…

अधर्म पर धर्म की जीत

अधर्म पर धर्म की जीत
अधर्म पर धर्म की जीत
अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई,
जीत के इस त्योहार पर आप सभी को बधाई।।

अत्याचार पर सदाचार, क्रोध पर क्षमा की विजय,
शत्रुओं का नाश हो और आपकी हर तरफ जय।।
दशहरा की बहुत-बहुत बधाई।।

बुराई का हो जाए विनाश, दशहरा लाए नई आस,
विजय दशमी का त्योहार बन जाए आप सबके लिए खास।।

कुछ इसी अंदाज में दशहरा आपके लिए खास हो

कुछ इसी अंदाज में दशहरा आपके लिए खास हो
कुछ इसी अंदाज में दशहरा आपके लिए खास हो
आज हम सभी के अंदर की बुराई का नाश हो,
हमारे हृदय में ईश्वर का वास हो,
कुछ इसी अंदाज में दशहरा आपके लिए खास हो। बहुत-बहुत बधाई।।

हम सभी के अंदर के रावण का दहन हो,
राम के सदाचार जैसा हमारा रहन-सहन हो।
इसी कामना के साथ दशहरा की शुभकामनाएं।।

विजयदशमी की शुभकामनाएं

विजयदशमी की शुभकामनाएं
विजयदशमी की शुभकामनाएं
हम सब अपने अंदर के राम को जगाए,
रावण दहन के साथ दशहरा मनाएं।
आप सभी को विजयदशमी की शुभकामनाएं।।

दुर्गा पूजा से मिली है शक्ति, आओ सब मिलकर करें राम की भक्ति।
रावण का वध कर बुराई को मिटा दें, अपने दिलों से ईर्ष्या का भाव हटा दें।। हैपी दशहरा।।

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लोगों से अपील है कि पटाखों से वायु व ध्वनि प्रदूषण होता हैं इसलिए दशहरे पर रावण को गला दबाकर मारे।

रावण वध की बधाईयां

रावण वध की बधाईयां
रावण वध की बधाईयां
मुझे तो हैप्पी दशहरा की इतनी बधाईयां मिल रही हैं जैसे रावण को मैंने ही मारा हो।

19 अक्टूबर (19 October) यानी शुक्रवार को दशहरा (Dussehra 2018) भारत में धूमधाम से मनाया जाएगा. इसी दिन भगवान श्रीराम ने रावण (Ravana) का वध कर बुराई पर अच्छाई की जीत हासिल की थी. मान्यता है कि नवरात्र के दसवें दिन भगवान राम ने रावण का वध किया था, इसलिए इस विजयदशमी (VijayaDashami) मनाई जाती है.

श्रीलंका में आज भी रामायण (Ramayana) से जुड़े कई ऐतिहासिक स्थल मौजूद हैं, जिनके बारे में हर कोई जानना चाहता है. श्रीलंका में कई ऐसे स्थान हैं जो बीते हुए रामायण काल के इतिहास की गवाही देते हैं. बता दें, रिसर्च में श्रीलंका में 50 ऐसे स्थल खोजने का दावा किया गया है जिनका संबंध रामायण से है. इसी रिसर्च में निकलकर आया है कि रावण का शव एक गुफा में रखा गया था. जो श्रीलंका रैगला के जंगलों के बीच मौजूद है. श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहां के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर ये खोज की थी. आइए जानते हैं इस गुफा के बारे में...
Dussehra 2018: श्रीलंका की इस गुफा में रखा गया था रावण का शव! जानें क्या हुआ था वध के बाद
Dussehra 2018: श्रीलंका की इस गुफा में रखा गया था रावण का शव! जानें क्या हुआ था वध के बाद

इस बात को तो सभी जानते हैं कि जब भगवान श्रीराम और लंकाधिपति रावण के बीच युद्ध हुआ था, तब राम के हाथों रावण का वध हुआ था और यह भी जानते हैं कि रावण के अंतिम संस्कार के लिए उसके शव को रावण के भाई विभीषण को सौंपा गया था. विभीषण को लंकाधिपति रावण का शव सौंपे जाने के बाद रावण का अंतिम संस्कार हुआ भी था या नहीं इस बात को शायद कोई नहीं जानता है. दावा है कि यहां रावण की गुफा है, जहां उसने तपस्या की थी. मान जाता है कि उसी गुफा में रावण का शव रखा गया था. रैगला के इलाके में यह गुफा 8 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है. 

रावण ने यहां रखा था सीता को
मान्यताओं के मुताबिक, अशोक वाटिका वो जगह है जहां रावण ने माता सीता को रखा था. आज इस जगह को सेता एलीया के नाम से जाना जाता है, जो की नूवरा एलिया नामक जगह के पास स्थित है. यहां आज सीता का मंदिर है और पास ही एक झरना भी है. इस झरने के आसपास की चट्टानों पर हनुमान जी के पैरों के निशान भी मिलते हैं.

Durga Puja begins! Seven days after Mahalaya 2018 falling on October 8, the grand celebrations of Durga Puja kicks off Sunday on October 15 with Maha Sasthi. While Sharad Navratri had started on October 10, Durga Puja celebrations in West Bengal, Bihar and other eastern parts of the country commences a bit later. But importantly, it is Durga Pujo time. People are excited about sending and receiving colourful lovely Durga Puja wishes, messages and greetings. We bring to you Durga Puja Wishes, Quotes, Sms, Messages, Status to wish on Subho Sasthi, Maha Saptami, Durga Ashtami, Maha Navami.
Durga Puja Greetings: Navratri WhatsApp Messages, GIF Images, Facebook Status, Quotes & SMSes to Wish Shubho Pujo on Durgostav
Happy Durga Puja : Durga Puja Greetings: Navratri WhatsApp Messages, GIF Images, Facebook Status, Quotes & SMSes to Wish Shubho Pujo on Durgostav

It's festival season in India yet again and celebrations are in full swing. Navratri began on October 10 and will culminate on October 19 with Vijayadashami and Dussehra. Durga Puja like many other Indian festivals represents the victory of good over evil. The nine-day festival of Navratri worships nine forms of Goddess Durga which are Maa Shailputri, Maa Brahmacharini, Maa Chandraghnta, Maa Kushmanda, Maa Skandamata, Maa Katyani, Maa Kalratri, Maa Mahagauri and Maa Siddhdatri.

India being a diverse nation, the festival is celebrated with different traditions and customs across the country. There are several legends and mythology attached to the Hindu festival. One of the prominent stories states that Goddess Parvati took the avatar of Durga Maa and killed Mahishasura after a long battle.

or Durga Puja, people extend the festival greetings to their friends and family. And as the auspicious day approaches, we have compiled a list of WhatsApp messages wishing  Shubho Pujo you can send your loved ones. People also send Durgostav greetings through SMS and Facebook statuses.

Check out Durga Puja messages below:

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May Maa Durga Bestow You and Your Family With 9 Forms of Blessings, Fame, Name, Wealth, Prosperity, Happiness, Education, Health, Power and Commitment.
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May Maa Bless You With All the Happiness in the World, May You Have the Best Durga Puja Ever.
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On This Auspicious Occasion of Durga Puja, I Wish You Are Blessed With Prosperity and Success by Maa Durga. HAPPY DURGA PUJA
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On This Auspicious Occasion, I Wish the Colour, Bliss and Beauty, This Festival? Be With You Through the Year. Happy Durga Puja!

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May Goddess Durga Bless You With Lots of Prosperity, Happiness, Wealth and Good Fortune. May Your Durga Puja Be Full of Joy.

Some devotees also fast during the nine days obeisance to the deity and which is the symbol of the victory of good over evil. Delicious food and sweets are also a part of the festivals. On the final day of Durga Puja, people decorate their houses, wear new clothes, and pray to Durga for blessings to overcome hurdles in their life. We wish all our readers a very Happy Durga Puja!

Dussehra or Vijayadashami: 19 अक्टूबर को वियजदशमी (Dasahara, Dusshera, Dasara, Dussehra, Dashain) मनाई जा रही है. इस दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव मनाते हुए रावण के पुतले जलाए जाते हैं. रावण के पुतले के साथ ही उनके भाई कुंभकरण और बेटे मेघनाद के भी पुतलों को आग दी जाती है. मान्यता है कि आज के दिन राम ने रावण की लंका को भस्म कर सीता को छुड़ा लिया था. भगवान राम और रावण के इस युद्ध में कुंभकरण और बेटे मेघनाद की ही मृत्यु हुई थी, लेकिन बाकि सभी सदस्य सुरक्षित रहे. जिन दो सदस्यों की हत्या हुई आज भी लोग रावण के उनके पुतलों को जलाते हैं, लेकिन उन बाकि सदस्यों के नाम तक कोई नहीं जानता कि रावण की मृत्यु के बाद उनकी कितनी पत्नियां विधवा हुई और कितने बच्चे अनाथ हुए. यहां दशहरे (Dusshera 2018) के मौके पर जानिए रावण की शादियों और उनके परिवार के सदस्यों के बारे में.
ऐसा था रावण का Family Tree: 3 पत्नियों से थे 7 पुत्र, सौतेला भाई था धन का राजा
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रावण के दादा-दादी

रावण के दादा ब्रह्मा के पुत्र महर्षि पुलस्त्य थे और दादी का नाम हविर्भुवा था.

रावण के नाना-नानी

रावण के नाना का नाम सुमाली था और नानी का नाम ताड़का था. 

रावण के माता-पिता

रावण के पिता का नाम ऋषि विश्वश्रवा और माता का नाम कैकसी था. कैकसी विश्वश्रवा की दूसरी पत्नी थीं. इससे पहले उनकी शादी इलाविडा थी, जिनसे रावण से पहले कुबेर का जन्म हुआ. 

रावण के भाई-बहन

रावण के 8 भाई-बहन थे.
रावण के सगे भाई-बहन - विभीषण, कुंभकरण, अहिरावण, खर, दूषण और दो बहनें सूर्पनखा और कुम्भिनी थीं.
रावण के सौतेले भाई - कुबेर (जो कि रावण से बड़े थे)

रावण की तीन पत्नियां

रावण की पहली पत्नी मंदोदरी, दूसरी पत्नी धन्यमालिनी और तीसरी पत्नी का नाम किसी को मालूम नहीं है. मंदोदरी राजा मायासुर और अप्सरा हेमी की पुत्री थीं. 

रावण के 7 पुत्र

प्रचलित कथाओं के मुताबिक रावण के सात पुत्र थे जिनमें से पहली पत्नी से मेघनाद (इंद्रजीत) और अक्षय कुमार. दूसरी पत्नी से त्रिशिरा और अतिकाय. तीसरी पत्नी से एक पुत्र प्रहस्था था.

बुराइयों के पर्याय राक्षस रावण पर विजय के उपलक्ष्य में विजयादशमी का पर्व मनाया जाता है। दशहरा का त्यौहार अश्चिन माह कृष्ण पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन लोग शस्त्र पूजा भी करते हैं जिससे कि दुश्मनों पर विजय प्राप्त की जा सके। लेकिन इसके अलावा भी कई उपाय हैं जिन्हें लोग संपन्नता और एेश्वैर्य पान के लिए अपनाते हैं। आगे जानें कौन से हैं ये उपाय-
दशहरा 2018: सफलता और धन पाने के लिए दशहरे पर करें ये 5 उपाय Dashera 2018, Measures of Dussehra
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उपाय 1- दशहरे के दिन दोपहर को घर के ईशान कोने में चंदन, कुमकुम और पुष्प से अष्टदल कमल की आकृति बनाएं और देवी जया व वजिया का स्मरण कर उनका पूजन करें। इसके बाद शमी वृक्ष की पूजाकर वृक्ष के पास की थोड़ी मिट्टी लेकर अपने घर में रखें। माना जाता है कि ऐसा करने से रुके हुए काम बनते हैं और गरीबी नहीं आती।

उपाय 2- यदि आप कानूनी दांव पेंच से परेशान हैं या मुकदमों में फंसे हैं तो दशहरे को शमी के पेड़ की पूजा करें और शाम को उसके नीचे दीपक जलाएं। ऐसा करने से मुकदमों में विजय मिलती है और धन की प्राप्ति होती है।

उपाय 3- भगवान हनुमान संकटमोचन भी कहा जाता है। यदि आपके सामने किसी प्रकार का संकट है तो दशहरे के दिन सुबह गुड़ चने और शाम को लड्डुओं का भोग लगाकर प्रार्थना करें इससे हनुमान जी आपकी रक्षा करेंगे।

उपाय 4- किसी भी क्षेत्र में विजय पाने के लिए दशहरे के दिन देवी पूजन करें और उन्हें 10 फल चढ़ाकर गरीबों में बांटें। देवी मां को फल चढ़ाते वक्त  'ॐ विजयायै नम:'  मंत्र का जाप करें। यह उपाय आप दशहरे के दिन दोपहर को करें।

उपाय 5- किसी को अपने बुरे कार्यों के लिए यदि यमलोक का भय सता रहा हो तो दशहरे के दिन मां काली का ध्यान करते हुए उनसे क्षमा मांगें और काला तिल चढ़ाएं। माना जाता है कि ऐसा हर साल करने से यमलोक की यातनाओं का भय नहीं सताता।

Dussehra 2018: 19 अक्टूबर को दशहरा या विजयदशमी (Dussehra or Vijayadashami) मनाई जाएगी. इस दिन भगवान राम ने रावण (Ravana) का वध कर सीता को उनके चंगुल से छुड़ा लिया था. बुराई पर अच्छाई की इस जीत का जश्न पूरी दुनिया मनाती है और सीता को उठाने के कारण रावण के पुतले को जलाया जाता है. रावण के इसी कर्म के कारण उनको पूरे विश्व में राक्षस का कहा जाने लगा, लेकिन रावण बहुत बड़े विद्वान थे. वह शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे. इसी वजह से भारत में कई जगहों पर उनके नाम के मंदिर हैं जहां रावण को भगवान मानते हैं. यहां जानिए ऐसे ही छह मंदिरों के बारे में जहां रावण की पूजा की जाती है. 
Dussehra: राम नहीं भारत के इन 6 मंदिरों में होती है रावण की पूजा, दशहरे के दिन मनता है शोक
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1. बैजनाथ कस्बा, हिमाचल प्रदेश 

मान्यता है कि यहां पर रावण ने भगवान शिव की वर्षों तक कठोर तपस्या की थी. साथ ही यह भी माना जाता है कि बैजनाथ कस्बे से होकर ही रावण शिवलिंग लेकर लंका के लिए गुज़रे थे. यहां कोई रावण का मंदिर नहीं है, बल्कि कस्बे के साथ मौजूद यह मंदिर टूरिस्टों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. यहां रावण के पुतले नहीं जलाए जाते.

2. दशानन मंदिर, कानपुर, उत्तर प्रदेश

कानपुर के शिवाला क्षेत्र में मौजूद है दशानन मंदिर. साल में सिर्फ एक ही बार दशहरा के दौरान इस मंदिर के द्वार खोले जाते हैं. मंदिर में मौजूद रावण की मूर्ति का श्रृंगार कर आरती उतारी जाती है. सिर्फ इसी एक दिन भक्तों को मंदिर में आने की अनुमति होती है. भारी भीड़ में यहां लोग रावण के दर्शन के लिए आते हैं. लोगों की मान्यता है कि 1890 में बने इस मंदिर में तेल के दिए जलाने से मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं. 

3. मंडोर, जोधपुर, राजस्थान

इस जगह को रावण का ससुराल माना जाता है. यहां रावण की पहली पत्नी मंदोदरी को बेटी मानते हैं. इसके अलावा यहां मौजूद श्रीमाली ब्राह्मण समाज के लोग रावण की कुलदेवी खरानना की पूजा करते हैं और खुद को रावण का वंशज बताते हैं. मंडोर में रावण और मंदोदरी का मंदिर भी है. दशहरे के दिन रावण की मृत्यु और मंदोदरी के विधवा होने की वजह से यहां के लोग विजय दशमी के दिन शोक मनाते हैं. 

4. विदिशा, मध्य प्रदेश

इस जगह को भी मंदोदरी का जन्म स्थान मानते हैं. दशहरे के दिन लोग यहां मौजूद 10 फीट लंबी रावण की प्रतिमा की पूजा करते हैं. इसके साथ ही शादियों जैसे शुभ अवसर पर भी इस मूर्ति का आर्शीवाद लेते हैं. 

5. मंदसौर, मध्य प्रदेश

विदिशा की ही तरह मंदसौर में भी रावण की पूजा की जाती है. इस जगह मौजूद मंदिर को मध्य प्रदेश में बना रावण का पहला मंदिर माना जाता है. यहां रावण रुण्डी नाम से रावण की विशाल मूर्ति भी मौजूद है, जिसकी पूजा की जाती है. महिलाएं इस मूर्ति से सामने से घूंघट करके निकलती हैं. मान्यताओं के अनुसार रावण को मंदसौर का दामाद माना जाता है. मंदोदरी के नाम पर ही इस जगह का नाम मंदसौर पड़ा, 

6. लंकेश्वर महोत्सव (फसल महोत्सव), कोलार, कर्नाटक

यहां लंकेश्वर महोत्सव के दौरान रावण की पूजा के साथ-साथ जुलूस भी निकाला जाता है. जुलूस में रावण के साथ भगवान शिव की मूर्ति को भी घुमाया जाता है. मान्यता है कि रावण के भगवान शिव का परम भक्त होने के चलते यहां रावण की पूजा की जाती है. कोलार के लिए मंडया जिले में मालवल्ली तहसील में रावण का एक मंदिर भी है. 

दशहरा (Dussehra, Dusshera) या विजयदशमी (Vijaydashmi) हिन्‍दुओं का प्रमुख त्‍योहार है. यह असत्‍य पर सत्‍य और बुराई पर अच्‍छाई की व‍िजय का प्रतीक है. मान्‍यता है कि भगवान श्री राम (Sri Ram) ने दशमी के दिन 10 सिर वाले अधर्मी रावण (Ravana) को मार गिराया था. यही नहीं इसी दिन मां दुर्गा (Maa Durga) ने महिषासुर नाम के दानव का वध कर उसके आतंक से देवताओं को मुक्‍त किया था. नवरात्रि (Navratri) के नौ दिनों के बाद 10वें दिन नौ शक्तियों के विजय के उत्‍सव के रूप में विजयदशमी मनाई जाती है.
Dussehra 2018: जानिए दशहरा की तिथि, विजय मुहूर्त, महत्‍व और परंपराओं के बारे में सब कुछ

दशहरा का महत्‍व 

दशहरा का धार्मिक महत्‍व तो है ही लेकिन यह त्‍योहार आज भी बेहद प्रासंगिक है. यह पर्व बुराई पर अच्‍छाई का प्रतीक है. आज भी कई बुराइयों के रूप में रावण जिंदा है. यह त्‍योहार हमें हर साल याद दिलाता है कि हम बुराई रूपी रावण का नाश करके ही जीवन को बेहतर बना सकते हैं. महंगाई, भ्रष्‍टाचार, व्‍यभिचार, बेईमानी, हिंसा, भेदभाव, ईर्ष्‍या-द्वेष, पर्यावरण प्रदूषण, यौन हिंसा और यौन शोषण जैसी तमाम ऐसी बुराइयां हैं जो आज भी अपना अट्ठाहस कर मानवता और सभ्‍य समाज को चुनौती दे रही हैं. ऐसे में जरूरी है कि हम दशहरा के दिन इनको जड़ से खत्‍म करने का संकल्‍प लें. तभी हम सही मायनों में दशहरा की महत्ता को समझ पाएंगे.

दशहरा कब मनाया जाता है?

शरद नवरात्र के 10वें दिन और दीपावली से ठीक 20 दिन पहले दशहरा आता है. हिन्‍दू कैलेंडर के अनुसार आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को विजयदशमी या दशहरे का त्‍योहार मनाया जाता है. इस बार दशहरा 19 अक्‍टूबर को है. 

दशहरा की तिथि और शुभ मुहूर्त 

दशमी तिथि प्रारंभ: 18 अक्‍टूबर को दोपहर 03 बजकर 28 मिनट
दशमी तिथि समाप्‍त: 19 अक्‍टूबर को शाम 05 बजकर 57 मिनट तक

विजय मुहूर्त:  19 अक्‍टूबर को दोपहर 01 बजकर 58 मिनट से दोपहर 02 बजकर 43 मिनट तक. 
अपराह्न पूजा का समय: 19 अक्‍टूबर को दोपहर 01 बजकर 13 मिनट से दोपहर 03 बजकर 28 मिनट तक. 

दशहरा के दिन पूजा की परंपरा 
दशहरा का विजय मुहूर्त सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है. मान्‍यता है कि शत्रु पर विजय प्राप्‍त करने के लिए इसी समय निकलना चाहिए. विजय मुहूर्त में गाड़ी, इलेक्‍ट्रॉनिक सामान, आभूषण और वस्‍त्र खरीदना शुभ माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि इस मुहूर्त में कोई भी नया काम किया जाए तो सफलता अवश्‍य मिलती है. इस दिन शस्‍त्र पूजा के साथ ही शमी के पेड़ की पूजा की जाती है. साथ ही रावण दहन के बाद थोड़ी सी राख को घर में रखना शुभ माना जाता है.

क्‍यों मनाया जाता है दशहरा? 

दशहरा मनाए जाने को लेकर कई मान्‍यताएं प्रचलित हैं:
- एक कथा के मुताबिक महिषासुर नाम का एक बड़ा शक्तिशाली राक्षस था. उसने अमर होने के लिए ब्रह्मा की कठोर तपस्या की. ब्रह्माजी ने उसकी तपस्‍या से खुश होकर उससे वरदान मांगने के लिए कहा. मह‍िषासुर ने अमर होने का वरदान मांगा. इस पर ब्रह्माजी ने उससे कहा कि जो इस संसार में पैदा हुआ है उसकी मृत्‍यु निश्चित है इसलिए जीवन और मृत्यु को छोड़कर जो चाहे मांग सकते हो. ब्रह्मा की बातें सुनकर महिषासुर ने कहा कि फिर उसे ऐसा वरदान चाहिए कि उसकी मृत्‍यु देवता और मनुष्‍य के बजाए किसी स्‍त्री के हाथों हो. ब्रह्माजी से ऐसा वरदान पाकर महिषासुर राक्षसों का राजा बन गया और उसने देवताओं पर आक्रमण कर दिया. देवता युद्ध हार गए और देवलोकर पर महिषासुर का राज हो गया.

महिषासुर से रक्षा करने के लिए सभी देवताओं ने भगवान विष्णु के साथ आदि शक्ति की आराधना की. इस दौरान सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य रोशनी निकली जिसने देवी दुर्गा का रूप धारण कर लिया. शस्‍त्रों से सुसज्जित मां दुर्गा ने महिषासुर से नौ दिनों तक भीषण युद्ध करने के बाद 10वें दिन उसका वध कर दिया. इसलिए इस दिन को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है. महिषासुर का नाश करने की वजह से दुर्गा मां महिषासुरमर्दिनी नाम से प्रसिद्ध हो गईं.

- एक दूसरी कथा के मुताबिक भगवान श्री राम ने लगातार नौ दिनों तक लंका में रहकर रावण से युद्ध किया. फिर 10वें दिन उन्‍होंने रावण की नाभ‍ि में तीर मारकर उसका वध कर दिया था. कहते हैं कि भगवान श्री राम ने मां दूर्गा की पूजा कर शक्ति का आह्वान किया था. श्री राम की परीक्षा लेते हुए मां दुर्गा ने पूजा के लिए रखे गए कमल के फूलों में से एक फूल को गायब कर दिया. राम को कमल नयन कहा जाता था इसलिए उन्होंने अपना एक नेत्र मां को अर्पण करने का निर्णय लिया. ज्यों ही वह अपना नेत्र निकालने लगे देवी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुईं और विजयी होने का वरदान दिया. फिर दशमी के दिन श्री राम ने रावण का वध कर दिया.

कैसे मनाया जाता है दशहरा का त्‍योहार?

दशहरा का त्‍योहार देश भर में पूरे हर्षोल्‍लास के साथ मनाया जाता है. मैसूर और कुल्‍लू का दशहरा तो दुनिया भर में मशहूर है. नवरात्रि के नौ दिनों बाद 10वें दिन देश के अलग-अलग कोनों में रावण दहन और मेलों का आयोजन होता है. इस दिन रावण, कुंभकरण और मेघनाद के पुतले जलाए जाते हैं. दशमी के दिन दुर्गा पंडालों पर विशेष पूजा होती है. स्त्रियां मां दुर्गा को सिंदूर चढ़ाती हैं और फिर एक-दूसरे को भी सिंदूर लगाती हैं. इसे सिंदूर खेला कहा जाता है. इसके बाद दुर्गा मां की प्रतिमा को विसर्जन के लिए ले जाया जाता है. इस दिन क्षत्रिय शस्‍त्र पूजा करते हैं, जबकि ब्राह्मण शास्‍त्रों का पूजन करते हैं. वहीं व्‍यापार से जुड़े वैश्‍य लोग अपने प्रतिष्‍ठान और गल्‍ले की पूजा करते हैं. साथ ही नई दुकान या कारोबार का शुभारंभ भी करते हैं. दरअसल, प्राचीन काल में क्षत्रिय युद्ध पर जाने के लिए इस दिन का ही चुनाव करते थे. ब्राह्मण दशहरा के ही दिन विद्या ग्रहण करने के लिए अपने घर से निकलता था. मान्‍यता है कि दशहरा के दिन शुरू किए गए काम में विजय अवश्‍य मिलती है. विजयदशमी पर शमी के वृक्ष की पूजा का भी विधान है.

मैसूर का दशहरा 

कर्नाटक के मैसूर का दशहरा सिर्फ भारत में नहीं बल्‍कि पूरी दुनिया में मशहूर है. 10 दिनों तक मनाया जाने वाला मैसूर का दशहरा उत्‍सव देवी दुर्गा के स्‍वरूप चामुंडेश्‍वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है. मैसूर में दशहरा मनाए जाने की परंपरा 600 सालों से भी ज्‍यादा पुरानी है. यहां दशहरा उत्‍सव के दौरान चामुंडेश्‍वरी मंदिर और मैसूर महल को भव्‍य तरीके से सजाया जाता है और विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. विजयदशमी के मौके पर मैसूर का राज दरबार आम लोगों के लिए खोल दिया जाता है. पूरे 10 दिनों तक धूमधाम से उत्‍सव मनाया जाता है. 10वें दिन के उत्‍सव को जम्‍बू सवारी या अम्‍बराज कहा जाता है. इस दिन 'बलराम' नाम के हाथी और अन्‍य 11 गजराज को विशेष रूप से सजाया जाता है. बलराम के सुनहरे हौदे पर सवार होकर मां चामुंडेश्वरी नगर भ्रमण के लिए निकलती हैं. इस 750 किलो वजन के हौदे की खासियत यह है कि इसमें लगभग 80 किलो सोना लगा हुआ है. हौदे पर बेहद खूबसूरत नक्‍काशी की गई है. आपको बता दें कि साल में एक ही बार मां चामुंडेश्वरी की प्रतिमा नगर भ्रमण के लिए निकलती है.

कुल्‍लू का दशहरा 

हिमाचल प्रदेश के कुल्‍लू का दशहरा देश भर में काफी लोकप्रिय है. इस त्‍योहार को यहां 'दशमी' के नाम से जाना जाता है. यहां दशहरा एक दिन नहीं बल्‍कि सात दिन मनाया जाता है. कुल्‍लू में दशहरा विजयदशमी से शुरू होकर अगले सात दिनों तक चलता है. यहां दशहरे की तैय‍ारियां अश्विन महीने के पहले 15 दिनों से ही शुरू हो जाती हैं. सबसे पहले यहां के राजा सभी देवी-देवताओं को रघुनाथ जी के सम्‍मान में यज्ञ का न्‍योता देकर धालपुर घाटी बुलाते हैं. दशमी के दिन 100 से ज्‍यादा देवी-देवताओं को सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है. इन सात दिनों में रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है. रथ में रघुनाथ जी, माता सीता और हिडिंबा देवी की प्रतिमाओं को बैठाया जाता है. उत्‍सव के छठे दिन सभी देवी-देवता एक जगह मिलते हैं जिसे 'मोहल्‍ला' कहा जाता है. सातवें दिन व्‍यास नदी के किनारे लंका दहन होता है. यहां रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला नहीं जलाया जाता, बल्‍कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच पशुओं की बलि दी जाती है. इसके बाद रथ को फिर से रघुनाथ जी के मंदिर में पुनर्स्‍थापित कर दशहरे का समापन किया जाता है.

Maha Navami marks the end of Navratri, the nine-day festival of worship of Goddess Durga. As per the mythological stories, Goddess Durga’s battle against demon Mahishasura lasted for nine long days. She finally won over the demon on the ninth day which is celebrated as Maha Navami.

According to the Hindu calendar, Maha Navami is celebrated on the navam that is ninth day of the Shukla Paksha in the Indian month of Ashwina.
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On this day, Goddess Durga is worshipped as Saraswati, the Goddess of wisdom and knowledge. People in south India celebrate Navami as Ayudha Puja where musical instruments, books, equipment of all kinds including automobiles and machinery are decorated and worshipped. While in the east and north-east India, Navami is celebrated as the third day of Durga Puja called Shodhasopachar puja, where Goddess Durga is worshipped as Mahishasurmardini (the goddess who killed the buffalo demon Mahishasur). While in north India, Kanjak or Kanya puja is observed on the auspicious day of Navami, where young unmarried girls are honoured and worshipped.
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Maha Navami marks the end of evil and the dawn of happiness and new beginnings. On this auspicious day, have curated wishes and greetings you can send to your friends and family wishing them a Happy Maha Navami.

*May the blessing of Maa Durga guide you on the right path and help you in all your endeavours. Warm wishes of Durga Navami to all
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*Maa Durga, the universal mother is an embodiment of power. We bow to her to seek blessings on this auspicious occasion of Durga Navami. Jai Mata Di

*Durga Puja Is A Blessed Time
Rejoice In The Glories Of Maa Durga
And Celebrate All The Blessings Of Goddess
With Your Friends, Family & Acquaintances
And Loved Ones
Happy Durga Navami.

*May the goodness flow through us to the world around,
removing the evils within and without on this day of Durga Navami and ever.

*May this Navami brighten your day and night,
May it add colour to your life,
May it remove all the sorrows and worries from your life,
And give you the strength and patience to face every difficulty,
May it fill your life with lots of joy and well-being,
Have a great Maha Navami!

*This Maha Navami, I want to thank you, for being there with me all the times,
I want to thank you for holding my hands no matter how tough it was,
I want to thank you for making it more easier for me to overcome difficulties,
And I want to thank you for loving me each and every moment,
Sending you my choicest greetings this Maha Navami!

*From Sasthi to Dashami it’s time to enjoy. May Maa bless you with lots of happiness and joy. Warm Wishes on Durga Puja!

*May this auspicious day bring prosperity and joy,
The atmosphere is filled with love and happiness,
Therefore, I wish you a great Maha Navami!

 विश्वकर्मा पूजा  Vishwakarma Puja
हस्तशिल्पी कलाकार भगवान विश्वकर्मा की जयंती हर साल 17 सितंबर को मनाई जाती है, इसे विश्वकर्मा पूजा के नाम से भी जानते हैं. इस दिन सभी निर्माण के कार्य में उपयोग होने वाले हथियारों और औजारों की पूजा की जाती है. उद्योग जगत के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती पर उनकी विधिविधान से पूजा करने से विशेष फल की प्राप्‍त‍ि होती है. भगवान विश्वकर्मा खुश होते हैं तो व्‍यवसाय में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्‍की होती है. विश्वकर्मा देव ने पूरी श्रृष्टि का निर्माण किया इन्हें सृष्टि का निर्माणकर्ता कहते हैं.

कब मनाई जाती है विश्वकर्मा पूजा
विश्वकर्मा पूजा यानि विश्वकर्मा जयंती हर साल कन्या संक्रांति के दिन 17 सितंबर को मनाई जाती है. इस साल भगवान विश्वकर्मा जयंती रवि‍वार के दिन मनाई जाएगी.

समुद्र मंथन से हुआ था भगवान विश्वकर्मा का जन्म
माना जाता है कि प्राचीन काल में सभी का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था. 'स्वर्ग लोक', सोने का शहर - 'लंका' और कृष्ण की नगरी - 'द्वारका', सभी का निर्माण विश्वकर्मा के ही हाथों हुआ था. कुछ कथाओं के अनुसार भगवान विश्वकर्मा का जन्म देवताओं और राक्षसों के बीच हुए समुद्र मंथन से माना जाता है.

पूरे ब्रह्मांड का किया था निर्माण
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार उन्होंने पूरे ब्रह्मांड का निर्माण किया है. पौराणिक युग में इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों को भी विश्वकर्मा ने ही बनाया था जिसमें 'वज्र' भी शामिल है, जो भगवान इंद्र का हथियार था. वास्तुकार कई युगों से भगवान विश्वकर्मा अपना गुरू मानते हुए उनकी पूजा करते आ रहे हैं.

विश्वकर्मा पूजा की विधि

  • - विश्वकर्मा पूजा के लिए भगवान विश्वकर्मा की प्रतिमा को विराजित कर इनकी पूजा की जाती है, हालांकि कई अपने कल-पुर्जे को ही भगवान विश्वकर्मा मानकर पूजा करते हैं. इस दिन कई जगहों पर यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है.
  • - इस दिन पूजा में बैठने से पहले स्‍नान कर लें और भगवान विष्‍णु का ध्‍यान करने के बाद एक चौकी पर भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति या तस्‍वीर रखें.
  • - इसके बाद अपने दाहिने हाथ में फूल, अक्षत लेकर मंत्र पढ़े और अक्षत को चारों ओर छिड़के दें और फूल को जल में छोड़ दें.
  • - इसके बाद हाथ रक्षासूत्र मौली या कलावा बांधे. फिर भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करने के बाद उनकी विधिव‍त पूजा करें.
  • - पूजा के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि को जल, रोली, अक्षत, फूल और मि‍ठाई से पूजें और फिर विधिव‍त हवन करें.

भगवान विश्वकर्मा की पूजा का मंत्र
ॐ आधार शक्तपे नम: और ॐ कूमयि नम:, ॐ अनन्तम नम:, ॐ पृथिव्यै नम:

गोवर्धन पूजा कथा Vrat-katha Govardhan Puja
कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन पूजा  (Govardhan Puja) की जाती है। हिन्दू मान्यतानुसार महाभारत काल में इसी दिन भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की थी। तभी से यह परंपरा कायम है। साल 2016 में गोवर्धन पूजा 31 अक्टूबर को की जाएगी। गोवर्धन पूजा से जुड़ी कथा निम्न है:

गोवर्धन पूजा Wallpaper Download
एक बार की बात है इंद्र को अपनी शक्तियों पर घमंड हो गया। तब भगवान कृष्ण ने उनके घमंड को चूर करने के लिए एक लीला रची। इसमें उन्होंने सभी ब्रजवासियों और अपनी माता को एक पूजा की तैयारी करते हुए देखा तो, यशोदा मां से पूछने लगे, "मईया आप सब किसकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं?” तब माता ने उन्हें बताया कि 'वह इन्द्रदेव की पूजा की तैयारी कर रही हैं।"
फिर भगवान कृष्ण ने पूछा "मैइया हम सब इंद्र की पूजा क्यों करते है? तब मईया ने बताया कि 'इंद्र वर्षा करते हैं और उसी से हमें अन्न और हमारी गाय के घास मिलता है। यह सुनकर कृष्ण जी ने तुरंत कहा "मैइया हमारी गाय तो अन्न गोवर्धन पर्वत पर चरती है, तो हमारे लिए वही पूजनीय होना चाहिए। इंद्र देव तो घमंडी हैं वह कभी दर्शन नहीं देते हैं। 

कृष्ण की बात मानते हुए सभी ब्रजवासियों ने इन्द्रदेव के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इस पर क्रोधित होकर भगवान इंद्र ने मूसलाधार बारिश शुरू कर दी। वर्षा को बाढ़ का रूप लेते देख सभी  ब्रज के निवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगें। तब कृष्ण जी ने वर्षा से लोगों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कानी उंगली पर उठा लिया। 
इसके बाद सब को अपने गाय सहित पर्वत के नीचे शरण लेने को कहा। इससे इंद्र देव और अधिक क्रोधित हो गए तथा वर्षा की गति और तेज कर दी। इन्द्र का अभिमान चूर करने के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियंत्रित करने को और शेषनाग से मेंड़ बनाकर पर्वत की ओर पानी आने से रोकने को कहा। 
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इंद्र देव लगातार रात- दिन मूसलाधार वर्षा करते रहे। काफी समय बीत जाने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। तब वह ब्रह्मा जी के पास गए तब उन्हें ज्ञात हुआ की श्रीकृष्ण कोई और नहीं स्वयं श्री हरि विष्णु के अवतार हैं। इतना सुनते ही वह श्री कृष्ण के पास जाकर उनसे क्षमा याचना करने लगें। इसके बाद देवराज इन्द्र ने कृष्ण की पूजा की और उन्हें भोग लगाया। तभी से गोवर्धन पूजा की परंपरा कायम है। मान्यता है कि इस दिन गोवर्धन पर्वत और गायों की पूजा करने से भगवान कृष्ण प्रसन्न होते हैं।

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दीपावली पूजन विधि
दीपावली पूजन की विधि Diwali Puja Vidhi

कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इसे रोशनी का पर्व भी कहा जाता है।


कहा जाता है कि कार्तिक अमावस्या को भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री रामचन्द्र के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनायी थीं, इसी याद में आज तक दीपावली पर दीपक जलाए जाते हैं और कहते हैं कि इसी दिन महाराजा विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था। आज के दिन व्यापारी अपने बही खाते बदलते है तथा लाभ हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं।  दीपावली पर जुआ खेलने की भी प्रथा हैं। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर में भाग्य की परीक्षा करना है। लोग जुआ खेलकर यह पता लगाते हैं कि उनका पूरा साल कैसा रहेगा।

पूजन विधानः दीपावली पर माँ लक्ष्मी व गणेश के साथ सरस्वती मैया की भी पूजा की जाती है। भारत मे दीपावली परम्प   रम्पराओं का त्यौंहार है। पूरी परम्परा व श्रद्धा के साथ दीपावली का पूजन किया जाता है। इस दिन लक्ष्मी पूजन में माँ लक्ष्मी की प्रतिमा या चित्र की पूजा की जाती है। इसी तरह लक्ष्मी जी का पाना भी बाजार में मिलता है जिसकी परम्परागत पूजा की जानी अनिवार्य है। गणेश पूजन के बिना कोई भी पूजन अधूरा होता है इसलिए लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन भी किया जाता है। सरस्वती की पूजा का कारण यह है कि धन व सिद्धि के साथ ज्ञान भी पूजनीय है इसलिए ज्ञान की पूजा के लिए माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
इस दिन धन व लक्ष्मी की पूजा के रूप में लोग लक्ष्मी पूजा में नोटों की गड्डी व चाँदी के सिक्के भी रखते हैं। इस दिन रंगोली सजाकर माँ लक्ष्मी को खुश किया जाता है। इस दिन धन के देवता कुबेर, इन्द्र देव तथा समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले विष्णु भगवान की भी पूजा की जाती है। तथा रंगोली सफेद व लाल मिट्टी से बनाकर व रंग बिरंगे रंगों से सजाकर बनाई जाती है।
विधिः दीपावली के दिन दीपकों की पूजा का विशेष महत्व हैं। इसके लिए दो थालों में दीपक रखें। छः चौमुखे दीपक दोनो थालों में रखें। छब्बीस छोटे दीपक भी दोनो थालों में सजायें। इन सब दीपको को प्रज्जवलित करके जल, रोली, खील बताशे, चावल, गुड, अबीर, गुलाल, धूप, आदि से पूजन करें और टीका लगावें। व्यापारी लोग दुकान की गद्दी पर गणेश लक्ष्मी की प्रतिमा रखकर पूजा करें। इसके बाद घर आकर पूजन करें। पहले पुरूष फिर स्त्रियाँ पूजन करें। स्त्रियाँ चावलों का बायना निकालकर कर उस रूपये रखकर अपनी सास के चरण स्पर्श करके उन्हें दे दें तथा आशीवार्द प्राप्त करें। पूजा करने के बाद दीपकों को घर में जगह-जगह पर रखें। एक चौमुखा, छः छोटे दीपक  गणेश लक्ष्मीजी के पास रख दें। चौमुखा दीपक का काजल सब बडे बुढे बच्चे अपनी आँखो में डालें।


दीपावली पूजन कैसे करें

प्रातः स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
अब निम्न संकल्प से दिनभर उपवास रहें-

मम सर्वापच्छांतिपूर्वकदीर्घायुष्यबलपुष्टिनैरुज्यादि-
सकलशुभफल प्राप्त्यर्थं
गजतुरगरथराज्यैश्वर्यादिसकलसम्पदामुत्तरोत्तराभिवृद्ध्‌यर्थं

इंद्रकुबेरसहितश्रीलक्ष्मीपूजनं करिष्ये।

संध्या के समय पुनः स्नान करें।

लक्ष्मीजी के स्वागत की तैयारी में घर की सफाई करके दीवार को चूने अथवा गेरू से पोतकर लक्ष्मीजी का चित्र बनाएं। (लक्ष्मीजी का छायाचित्र भी लगाया जा सकता है।)

  • भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन, कदली फल, पापड़ तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाएं।
  • लक्ष्मीजी के चित्र के सामने एक चौकी रखकर उस पर मौली बाँधें।
  • इस पर गणेशजी की मिट्टी की मूर्ति स्थापित करें।
  • फिर गणेशजी को तिलक कर पूजा करें।
  • अब चौकी पर छः चौमुखे व 26 छोटे दीपक रखें।
  • इनमें तेल-बत्ती डालकर जलाएं।
  • फिर जल, मौली, चावल, फल, गुढ़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करें।
  • पूजा पहले पुरुष तथा बाद में स्त्रियां करें।
  • पूजा के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें।
  • एक छोटा तथा एक चौमुखा दीपक रखकर निम्न मंत्र से लक्ष्मीजी का पूजन करें-

नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरेः प्रिया।
या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात्वदर्चनात॥

 इस मंत्र से इंद्र का ध्यान करें-

ऐरावतसमारूढो वज्रहस्तो महाबलः।
शतयज्ञाधिपो देवस्तमा इंद्राय ते नमः॥

 इस मंत्र से कुबेर का ध्यान करें-

धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च।
भवंतु त्वत्प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्पदः॥

इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेशजी तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें।
तत्पश्चात इच्छानुसार घर की बहू-बेटियों को आशीष और उपहार दें।
लक्ष्मी पूजन रात के बारह बजे करने का विशेष महत्व है।
इसके लिए एक पाट पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक जोड़ी लक्ष्मी तथा गणेशजी की मूर्ति रखें। समीप ही एक सौ एक रुपए, सवा सेर चावल, गुढ़, चार केले, मूली, हरी ग्वार की फली तथा पाँच लड्डू रखकर लक्ष्मी-गणेश का पूजन करें।
उन्हें लड्डुओं से भोग लगाएँ।
दीपकों का काजल सभी स्त्री-पुरुष आँखों में लगाएं।
फिर रात्रि जागरण कर गोपाल सहस्रनाम पाठ करें।
इस दिन घर में बिल्ली आए तो उसे भगाएँ नहीं।
बड़े-बुजुर्गों के चरणों की वंदना करें।

व्यावसायिक प्रतिष्ठान, गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करें।

रात को बारह बजे दीपावली पूजन के उपरान्त चूने या गेरू में रुई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल्ल, लोढ़ा तथा छाज (सूप) पर कंकू से तिलक  करें। (हालांकि आजकल घरों मे ये सभी चीजें मौजूद नहीं है लेकिन भारत के गाँवों में और छोटे कस्बों में आज भी इन सभी चीजों का विशेष महत्व है क्योंकि जीवन और भोजन का आधार ये ही हैं)

दूसरे दिन प्रातःकाल चार बजे उठकर पुराने छाज में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाते समय कहें 'लक्ष्मी-लक्ष्मी आओ, दरिद्र-दरिद्र जाओ'।

लक्ष्मी पूजन के बाद अपने घर के तुलसी के गमले में, पौधों के गमलों में घर के आसपास मौजूद पेड़ के पास दीपक रखें और  अपने पड़ोसियों के घर भी दीपक रखकर आएं।

मंत्र-पुष्पांजलि :

( अपने हाथों में पुष्प लेकर निम्न मंत्रों को बोलें) :-

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्‌ ।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे ।
स मे कामान्‌ कामकामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु ॥
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः ।
ॐ महालक्ष्म्यै नमः, मंत्रपुष्पांजलिं समर्पयामि ।

(हाथ में लिए फूल महालक्ष्मी पर चढ़ा दें।)

प्रदक्षिणा करें, साष्टांग प्रणाम करें, अब हाथ जोड़कर निम्न क्षमा प्रार्थना बोलें :-

क्षमा प्रार्थना :

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्‌ ॥
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरि ॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वम्‌ मम देवदेव ।
पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः ।
त्राहि माम्‌ परमेशानि सर्वपापहरा भव ॥
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥

पूजन समर्पण :
हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र बोलें :-

'ॐ अनेन यथाशक्ति अर्चनेन श्री महालक्ष्मीः प्रसीदतुः'

(जल छोड़ दें, प्रणाम करें)

विसर्जन :

अब हाथ में अक्षत लें (गणेश एवं महालक्ष्मी की प्रतिमा को छोड़कर अन्य सभी) प्रतिष्ठित देवताओं को अक्षत छोड़ते हुए निम्न मंत्र से विसर्जन कर्म करें :-

यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्‌ ।
इष्टकामसमृद्धयर्थं पुनर्अपि पुनरागमनाय च ॥

ॐ आनंद ! ॐ आनंद !! ॐ आनंद !!!

लक्ष्मीजी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निसदिन सेवत हर-विष्णु-धाता ॥ॐ जय...
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता ।
सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥ॐ जय...
तुम पाताल-निरंजनि, सुख-सम्पत्ति-दाता ।
जोकोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि-धन पाता ॥ॐ जय...
तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता ।
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता ॥ॐ जय...

जिस घर तुम रहती, तहँ सब सद्गुण आता ।
सब सम्भव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥ॐ जय...
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।
खान-पान का वैभव सब तुमसे आता ॥ॐ जय...
शुभ-गुण-मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहिं पाता ॥ॐ जय...
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कई नर गाता ।
उर आनन्द समाता, पाप शमन हो जाता ॥ॐ जय...

(आरती करके शीतलीकरण हेतु जल छोड़ें एवं स्वयं आरती लें, पूजा में सम्मिलित सभी लोगों को आरती दें फिर हाथ धो लें।)

परमात्मा की पूजा में सबसे ज्यादा महत्व है भाव का, किसी भी शास्त्र या धार्मिक पुस्तक में पूजा के साथ धन-संपत्ति को नहीं जो़ड़ा गया है। इस श्लोक में पूजा के महत्व को दर्शाया गया है-

'पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्यु पहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥'

पूज्य पांडुरंग शास्त्री अठवलेजी महाराज ने इस श्लोक की व्याख्या इस तरह से की है

'पत्र, पुष्प, फल या जल जो मुझे (ईश्वर को) भक्तिपूर्वक अर्पण करता है, उस शुद्ध चित्त वाले भक्त के अर्पण किए हुए पदार्थ को मैं ग्रहण करता हूँ।'

भावना से अर्पण की हुई अल्प वस्तु को भी भगवान सहर्ष स्वीकार करते हैं। पूजा में वस्तु का नहीं, भाव का महत्व है।
परंतु मानव जब इतनी भावावस्था में न रहकर विचारशील जागृत भूमिका पर होता है, तब भी उसे लगता है कि प्रभु पर केवल पत्र, पुष्प, फल या जल चढ़ाना सच्चा पूजन नहीं है। ये सभी तो सच्चे पूजन में क्या-क्या होना चाहिए, यह समझाने वाले प्रतीक हैं।
पत्र यानी पत्ता। भगवान भोग के नहीं, भाव के भूखे हैं। भगवान शिवजी बिल्व पत्र से प्रसन्न होते हैं, गणपति दूर्वा को स्नेह से स्वीकारते हैं और तुलसी नारायण-प्रिया हैं! अल्प मूल्य की वस्तुएं भी हृदयपूर्वक भगवद् चरणों में अर्पण की जाए तो वे अमूल्य बन जाती हैं। पूजा हृदयपूर्वक होनी चाहिए, ऐसा सूचित करने के लिए ही तो नागवल्ली के हृदयाकार पत्ते का पूजा सामग्री में समावेश नहीं किया गया होगा न!

पत्र यानी वेद-ज्ञान, ऐसा अर्थ तो गीताकार ने खुद ही 'छन्दांसि यस्य पर्णानि' कहकर किया है। भगवान को कुछ दिया जाए वह ज्ञानपूर्वक, समझपूर्वक या वेदशास्त्र की आज्ञानुसार दिया जाए, ऐसा यहां अपेक्षित है। संक्षेप में पूजन के पीछे का अपेक्षित मंत्र ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। मंत्रशून्य पूजा केवल एक बाह्य यांत्रिक क्रिया बनी रहती है, जिसकी नीरसता ऊब निर्माण करके मानव को थका देती है। इतना ही नहीं, आगे चलकर इस पूजाकांड के लिए मानवके मन में एक प्रकार की अरुचि भी निर्माण होती है।

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Satish Kumar

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